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चालीस रुपये
चालीस रुपये आये और गये। फिर आये और फिर गये। इस चक्कर में उनसे एक कहानी बन गई। उसी का वृत्तान्त सुनाता हूँ ।
आप वागीश को जानते न हों, पर नाम सुना होगा । आदमी वह कुछ यों ही है। खैर, वह अपने कानपुर से इलाहाबाद जा रहा था । उतरा और ताँगे पर पहुँचा तो देखता है कि एक औरत उसके पीछे खड़ी है । गिड़गिड़ा रही है और वह कुछ चाहती है । गोद में बच्चा है । मैली-सी धोती पहिने है, जिसको सिर पर खींच कर आधा घू घट-सा कर लिया है ।
Sarita (यह उसका किताबी नाम है) को इस तरह की बातें अच्छी नहीं लगतीं । उसे छीनना अच्छा लग सकता है, माँगना बुरा लगता है । एक बार कुरते की नीचे की जेब में रूमाल पड़ा था, जिसमें कुछ पैसे थे। किसी ने उसे ऐसा साफ खींच कर निकाल लिया कि क्या बात ! यह वागीश को अच्छा लगा। उसकी तबियत हुई कि वह हुनरमन्द मिले तो कुछ उसको इनाम दिया जाय । आखिर यह भी हाथ की सफ़ाई है । एक बार ऐसी साफ़ जेब कटी कि क्या कहना ! उसके बाद ब्लेड लेकर उसने अपने कोट पर खुद हाथ आजमाया कि वह सफ़ाई उसे भी नसीब हो । जेब किसी की काटनी नहीं है, यह दूसरी बात है । पर हाथ की
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