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जैनेन्द्र की कहानियाँ [ सातवाँ भाग ]
लीला - मैं उधर न जाऊँगी। मैं अपने को मोड़ेंगी। मैं प्रार्थना में शामिल होऊँगी। मैं श्राश्रम-वासिनी बनूंगी। उन्हें श्राप जरूर इनकार लिख दें । मैं क्लेश से कम नहीं होऊँगी । श्राप फौरन इनकार का तार दे दें ।
कैलाश - घबराओ नहीं ।
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लीला – वचन दीजिए कि आप चार्ल्स को मुझ तक न आने देंगे । मुझ से न मिलने दोगे । में उनकी निगाह के नीचे बेबस हो जाती हूँ ! उनकी आँख में न जाने क्या है । लेकिन आप देखेंगे कि मैं क्लेरा से कम नहीं हूँ ।
कैलाश - सुनो | अगर श्राश्रम की बनकर ग्राश्रम में रहना चाहती हो, तो कल से अपने उपयुक्त काम चुन लो । यह याद रखो कि तुम सदा आजाद हो ! अपना शासन शक्ति देता है, दूसरे का शासन बन्धन है। हम सबको स्वाधीन चाहते हैं । इसलिए कैसा भी खटका तुम्हें मन में नहीं रखना चाहिए। मेरी सलाह है कि कल से कोई काम तुम अपने ऊपर ले लो। उससे चित्त स्थिर होगा ।
लीला- — वचन दीजिए आप चार्ल्स को मुझ से दूर रखेंगे ।
हृदय । जैसे
कैलाश - में दूरी में विश्वास नहीं रखता । में पास होने में विश्वास करता हूँ । ऐसे पास कि एक । मैं तुम्हें किसी से दूर नहीं, सब के पास देखना चाहता हूँ । उससे भी अधिक पास जितने उनके उनकी आत्मा । ( कहते हुए लीला के कन्धे पर हाथ रख लेते हैं । ) किससे दूरी की जरूरत है ? सब एक है । घबराओ नहीं। जो अपने को निवेदित कर सकता है, वह ईश्वर का आशीर्वाद पाता है । ईश - कृपा
से पाप क्षार हो जाता है । ( लीला श्रपने मुँह को हाथों में छिपा लेती है । ) ईश्वर जिसका साक्षी है, वह जग के प्रति निर्भीक बनता है । ईश्वर के प्रति कातर, मानव के प्रति निर्मम । क्यों घबराती हो ?
लीला – मैं अबला हूँ ।