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. आलोचना
१५५ की। दुनिया है तो हो, रहे, उससे उसका कुछ नहीं अटका है । आँखें उसकी भरपूर खुली थीं। माथे पर एकाध बल था। और जैसे उस त्योरी का सम्बन्ध किसी वस्तु-विशेष या परिस्थिति-विशेष से न था, प्रत्युत मानो वह ब्रह्माण्ड-भर के लिए था, और किसी के लिए न था । ___इक्के वाला, जिसका साफा बूदीदार था और पहलवानी तरीके से बँधा था, पैर की घण्टी बजाता हुआ, कोई तराना गुनगुनाता, सरपट बेखटक इक्के को लिये जा रहा था।
यह दृश्य मेरे मन को प्रीतिकर न हुआ। वह भीतर को सँकुच-सा आया । जी में ग्लानि-सी हुई ! यह खद्दरधारिणी महिलाएँ हैं ? यह देश-सेविकाएँ हैं ? ये कहाँ जा रही हैं ? ये क्या चाहती हैं ? सबको क्या पैरों-तले देखे-बिना इन्हें चैन नहीं है ? क्यों ये विजय की चाह के पीछे ऐसी परेशान हैं ?
वीरेन ने कहा, "देखा आपने ?"
मैं चुप रहा । मैंने देखा था, लेकिन मेरे लिए यह वाचाल होने की बात न थी।
वीरेन बोल उठा, "उसने स्त्री-शिक्षा पर बहुत-कुछ कहा। उसे खेद न था। वह राष्ट्र को धन्यवाद दे सकता था कि स्त्रियों में जागरण हुआ है; कि स्त्रियाँ पुरुष को चुनौती दे सकती हैं कि वह निर्भीक निःशंक, हाँ, निर्लज्ज भी होकर, अपनी अहंता का सिक्का जमाने सामने आई हैं।"
वीरेन चाहे जो कहे, मेरा जी भीतर-भीतर छोटा हो रहा था । स्त्रियाँ लंगर कसकर पुरुष से बदने मैदान में आना चाहें, तो बेशक क्यों न आएँ ? रोकने वाला मैं कौन ? लेकिन वे खम ठोककर बदाबदी करने आना चाहें, इसी पर मुझे क्लेश होता है । वह परिस्थिति नहीं भली है, और वह मनोवृत्ति नहीं शुभ है, जहाँ से यह चाह बनकर उठती है।
ये लड़कियाँ !-और मेरे लिए स्त्रियाँ सब लड़कियां हैं। उम्र में बहुत अशक्त हूँ इसलिए नहीं, पर कौन स्त्री ऐसी है, जो बच्ची नहीं है ?