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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] प्रार्थना में शामिल होमो । मेरे विचार में शान्ति अपनी मर्यादाओं की स्वीकृति है। प्रार्थना में हम अपनी सीमाओं को कृतज्ञ भाव से स्वीकार करते हैं। प्रार्थना में हम अपने को अज्ञ मानते हैं, इसी कारण प्रार्थना से वल मिलता है।
लीला-नहीं-नहीं। अपनी मर्यादाएँ मुझे काटती हैं । में खुल जाना चाहती हूँ, जैसे हवा। जिसके लिए कहीं रोक नहीं, कहीं निषेध नहीं । जिसका नियम सब अपने में है । [कैलाश की और मानो अवश भाव से देखती है। कैलाश
मुस्कराते रह जाते हैं।] लीला-आप हँसते है। हँसना निर्दय है। फिर भी आपके ही सामने में आज सब कहूँगी। आपके पास अमरीका से एक तार आया है । जो व्यक्ति पाना चाहता है, वह मुझे बेहद प्रेम करता है । मैं उसके प्रेम को प्रेम करती हूँ। लेकिन उसकी भूख ऐसी है कि वह चाहता है कि मैं उसी के लिए होऊँ। मैं क्या करूँ ? औरों ने भी मुझे प्रेम किया है। उन सबके प्रेम को मैंने प्रीति-पूर्वक स्वीकार किया । मैं किसी एक आदमी के लिए किसी दूसरे प्रादमी के प्रेम को कैसे छोड़ें । मैं कुछ नहीं छोड़ना चाहती। यह आदमी नरक तक मेरा पीछा करना चाहता है कि मुझे स्वर्ग में ले जाये। मुझे उसके सदाशय पर विश्वास है। मुझे उसके स्वर्ग पर विश्वास है। पर मैं वह नहीं चाहती। मुझे अपने भाग्य पर विश्वास नहीं है। वह प्रादमी मुझे इतना प्यार करता है कि उसका सारा प्यार में न ले सकी तो अचरज नहीं कि इसी पर वह मुझे मार दे। मुझे मरने से डर नहीं है। उसके हाथों मरना मुझे न लगेगा। लेकिन मुझे मारने के बाद उसकी क्या हालत होगी, यह सोचती हूँ तो डर जाती हूँ। फिर भी मैं अपने तन को उसके हाथ में नहीं सौंप सकती मैं विवाह नहीं कर सकती। अब तक जिन्होंने मुझे प्रेम किया, उन सबके प्रति विवाह कृतघ्नता होगी। मैं तंग हूँ। आप मुझे अपने आश्रम में