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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग]
कैलाश-कहो-कहो, रुको नहीं। बस इतना याद रखना है कि प्रार्थना का समय साढ़े-सात है ।
लीला-मैं कहती थी, मैं पूछना चाहती हूँ कि पाप क्या चीज़ है। मैं पाप नहीं मानना चाहती। आप सच क्या उसे मानते हैं ?
कैलाश-पाप को नहीं मानने के लिए प्रार्थना है।
लीला-मैं अब तक आश्रम की प्रार्थना में नहीं शामिल हुई। न होना चाहती हूँ। आप इससे नाराज हैं ?
कैलाश-बात तो नाराज होने की है।
लीला-तो आप नाराज हो सकते हैं। मैं यहाँ कुछ रोज रहना भी चाहती हूँ और अपने मन के खिलाफ भी कुछ नहीं करना चाहती। आप कहेंगे तो मैं नहीं रहूँगी। अगर मुझे अपनी तरह रहने देकर भी रख सकते हैं तो मै जरूर यहाँ कुछ दिन रहना चाहती हूँ। मुझे जानना है कि वह शान्ति क्या है जो आपके आस-पास प्रतीत होती है। क्या वह जड़ता से कुछ भिन्न है। ____ कैलाश-अच्छी तो बात है। रहो और जानो। लेकिन देखो, विद्रोह झेलने की चीज है। फैलाने की बह चीज नहीं। द्वन्द्व भड़काना नहीं चाहिए । उसकी मन्दता उत्तम है।
लीला-मन्दता क्या जड़ता नहीं है । सन्तोष भी होनता है । आसमान कितना बड़ा है, कैसा नीला है, कैसा सूना है। चिड़िया कहाँ-कहाँ उड़ जाती है। मैं क्यों न उनकी तरह उड़ना चाहूँ। क्यों न मैं आसमान बन जाना चाहूँ। मुझे क्यों हक नहीं है कि मैं बेचैन रहूँ। फिर प्रापकी शान्ति मुझे असम्भव लगती है । शान्ति अन्धे बनने में है । आँख खोलकर जो शान्त है वह...उसे मैं नहीं समझती। हाँ, अगर है तो शान्ति पाप है। अपनी अपूर्णताओं को लेकर कोई कैसे शान्त हो सकता है।
कैलाश-(मुस्कराकर) ठीक तो है !