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________________ ११० जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवां भाग] पर वह ऐसा कौन ? मैं द्विरागमन के लिए रेल में बैठा जा रहा था और मन में देख रहा था, मेरी पूजा की वह वेदी अब अधिक काल अनभिषिक्त न रहेगी। उस के अभिषेक का अवसर प्रा पहुंचा है। स्वप्न उमड़-उमड़ कर आते थे प्रांसू की भांति उस वेदी को धो जाते थे। आखिर दिन आया। छोटी रेल, छोटा स्टेशन, सेकिम्ड क्लास के रिजर्व डिब्बे के एक कोने में घूघट के भीतर वह बैठी थीं और खिड़की पर होकर प्लेटफार्म पर खड़े उनके भ्रातृ-जनों को मैं प्रणाम कर रहा था। गाड़ी चल दी। प्लेटफार्म धीमे-धीमे पार हो गया। मैं हठात खिड़की पर खड़ा रहा। मुझे डर लग रहा था, खिड़की से हटकर कम्पार्टमेंन्ट के अन्दर जाकर बैठना मुझ से कैसे बनेगा ? खिड़की पर मैं खड़ा ही रहा, खड़ा ही रहा। बस्ती के मकान निकले, बाग निकले, अब खेत आ गये । आखिर मैं खिड़की से हटा। घूघट कम हो गया था। साड़ी की कोर माथे तक थी । रूप पर: आपने तो कवियों की कविता पढ़ी है, वैसा ही कुछ समझिये। उन्होंने मेरी ओर देखा । उन आँखों में क्या था ? मैंने बढ़कर कहा, "जरा उठो, बिस्तर बिछा है।" वह बोली नहीं । "बिस्तर से प्राराम रहेगा।" फिर भी वह नहीं बोलीं। कुछ पूछती-सी आँखों से मुझे देखती रहीं। "उठो न जरा ।" "ठीक तो है । मुझे नहीं चाहिए।" पर इतने में तो मैंने ऊपर से बिस्तर उतार लिया था। मैं उसे खोलने लगा। सहसा उठकर उन्होंने मेरे हाथ को वहाँ से अलग कर दिया । बोलीं, मैं यह सब कर लूगी । तुम बैठो।"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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