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रुकिया बुढ़िया
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दीना-गांव में घर पर मुझे काम की कमी नहीं थी। और तुम जानती हो, यहाँ दिल्ली में किसके लिए आकर मरा हूँ।"
रुक्मिणी चुप । कुछ ठहरकर दीना ने पूछा, "आज क्या बनाया है ?" रुक्मिणी फिर चुप । दीना, "क्यों, बोला नहीं जाता।—या, मैं अच्छा नहीं लगता !"
रुक्मिणी चुप रही। और दीना के भीतर आक्रोश उठकर उसे घोंटने लगा।
दीना-"मैं चला जाऊँ, तब तुझे चैन पड़े। इतनी रात गये लौटता हूँ, तब भी यह नहीं कि मुह तो खोले, कुछ कहे । --कोई बकता है, तो बकता रहे। मैं जानता हूँ, तू मुझे नहीं चाहती। चाहती है, मैं मर जाऊँ।"
रुक्मिणी-"कुछ नहीं बना है।" दीना ने चिल्लाकर कहा, "क्यों कुछ नहीं बना है ?"
था नहीं-" दीना ने और जोर से चिल्लाकर कहा, "था नहीं ! क्यों नहीं था ?"
रुक्मिणी चुप हो रही।
दीना ने बहुत ज़ोर से चिल्लाकर कहा, "सुनती है कि लात से सुनाऊँ ?--कुछ क्यों नहीं था ?"
रुक्मिणा को लगा जैसे लात से सुनाया जायगा, तभी उसके लिए अधिक ठीक होगा। वह, सच, खूब पिटना चाहती है इस समय । जी के भीतर असह्य निराशा का उद्धत मुह इसी भाँति कुचलकर कुछ देर नीचा रहे, तो तनिक चैन तो उसे मिले । वह कुछ नहीं बोली।
दीना ने फर्श पर पैर पटककर कहा, "तो नहीं सुनेगी तू-ऐं ?" रुक्मिणी चुप बैठी रही।