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रुकिया बुढ़िया
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वह रुक्मिणो श्रई । यहाँ दीना की बिरादरी वालों का एक का घर है | दूर का रिश्ता भी दीना का उनसे होता है । वहीं वह ठहरी ।
रुक्मिणी सुन्दरी है । लज्जाशीला है, सावन-भादों में जैसे पली है । प्रेम जैसी भारी चीज से भरी है, इससे स्वयं हलकी नहीं है । इसलिए प्रेमिका नहीं है, गृहिणी है । सेवा में उसका प्रेम तुष्ट है, उत्सर्ग में उसे तृप्ति है । अधिकारशील उसका प्रेम कम है, इसलिए उसमें लग सकता है कि चमक कम है, धार कम है, नमक कम है । फुहारें उसमें नहीं हैं, क्योंकि गहराई अधिक है ।... वह गृहिणी है, गृहिणी नहीं बन सकी इसलिए अभागिनी है । वह प्रेम-भरी है, इससे प्रेमिका होना उससे नहां सम्भलेगा ।
और दीना ! दीना उतावला है, इससे जल्दी श्रघा जाने वाला हैं । उसे अतृप्ति चाहिए, तृप्ति झेलने की उसमें सामर्थ्य नहीं । इसीसे तृप्ति तृप्ति की भूख उसमें लपटें मारती रहती है । और अब यहाँ वह बहुत सर पटक चुका है । उसे रोज़ी के लिए कोई काम भी नहीं मिल सका है | वह असन्तुष्ट है । असन्तोष भीतरी है, इससे सब ओर फैल रहा है, और श्रास-पास जो हैं, उन सभी पर अपने फन पटकता है । ऐसे समय उसे चाहिए - नशा । ऐसे समय उसे चाहिए, थपकी नहीं, चोट । विहित, युक्त, गम्भीर, मीठा प्रेम नहीं; धुआँधार, उन्मत्त, चरपरा, चुटीला, सकटाक्ष, निषिद्ध प्रेम, जो डङ्क मार-मारकर उसे चेताए रखे । - नहीं तो वह जड़ होता जा रहा है !
ऐसी जगह, उषा की अरुणिमा सुन्दर नहीं है, पान की लाल ला से रँगे स्त्री- प्रोठ अधिक सुन्दर हैं । सौन्दर्य कहाँ नहीं है ? सौन्दर्य परमसत्य है, परम- सत्य की अभिन्न विभूति है, सत्य की भाँति सब ठौर व्यापा है । जिसकी जहाँ आँख है, वहाँ ही, वह उसे देख लेगा । इसी से अम्बर नील सुन्दर है, धूप झकझकाती धौली खिलती है; धरती हरी भाती है; रात तारों-टकी, श्यामल सुहाती है; प्रभात गुलाबी अच्छा लगता है ।