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मित्र विद्याधर वह अभागा है। वह अभाग्य पूर्ण हुआ कि मौत आई । पर, अपने-अपने बूते की बात है। मेरा बूता विनोद, शायद थोड़ा है।"
मैंने कहा, "तो तुमने प्रेम किया है ?"
विद्याधर, "तुम पूछते ही हो, तो मैं कहूँगा, हाँ किया है। पर, उसका ददे छूट गया है। अब उसका आनन्द ही मेरे साथ शेष है। स्मृति-रूप में मेरे साथ वह नहीं है। स्मृति में कसक है, परायापन है, अन्तर है। मेरे साथ वह प्रत्यक्ष है, एकाकार है। बीच में सँयोजक बनकर स्मृति को टिकने का अवकाश नहीं है । ''तभी देखते हो, मैं रोता नहीं हूँ। बातें सब मेरे साथ रोने की हैं। देखो न, तुम विद्याधर न होकर भी मेरे पास आकर विद्याधर की परिस्थिति पर रोया करते हो। मेरा प्रेम विलग हो, तो रोऊँ । वियुक्त, दूर हो, तो तड़पूँ। इसीलिए मैं अकेला हूँ, इसीलिए सदा तुष्ट हूँ।"
मैंने कहा, "विद्याधर !" विद्याधर, जो कभी नहीं हुआ, अब हुआ। वह विचलित
हुआ।
___ मैं अवश हो उठा। "मेरी बात पीछे होगी विद्याधर ! और तुम्हें अपनी बात मुझे सुनानी होगी।"
उसकी आवाज हिल आई । कहा, "विनोद, नहीं, यह नहीं..." ___ मैंने कहा, "तुम जानते हो, मैं कौन हूँ । विद्याधर, मैं तुम्हारा
विद्याधर सामने को देख उठा। मेरे बहाने मेरे पीछे की दीवार में वह क्या देख रहा था, जैसे उसी को लक्ष्य कर उसने कहा, "अपने जी से चीरकर अलग करें, तब सुनायें ।-नहीं, यह सुखद नहीं है।"