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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ] .६८ गया और हम लोग उनके मेहमान बने । कपड़े की उनकी खासी बड़ी कोठी थी, और भी कारोबार था । परिवार भरा-पूरा था । हमने देखा कि परिवार के सभी लोग हमारी अभ्यर्थना में लगे हैं। उनका स्नेह हार्दिक था । हममें एक आदरणीय बुजुर्ग थे | गृहपति उनसे तरह-तरह की बातें कर रहे थे । मैं पीछे बैठा हुआ सँकुचित था । मेरी निगाह उस कमरे की ऊँची छत और खुली दीवारों की तरफ जाती थी। जेल में सैल (cell) हमारा सब कुछ था । यहाँ कमरे के बाद कमरे थे; और उनके बाद और कमरे । इन कमरों की क़तार की ओर निरुद्देश्यभाव से देखता हुआ मैं कुछ खो गया था । बड़ी दूकान के बराबर से आते हुए कई कमरे लाँघकर हम लोग ड्राइंगरूम में बैठे हुए थे। मुझे जेल की सङ्कीर्णता के बाद इस घर की यह प्रशस्तता बड़ी मनभावनी लग रही थी । कृपणता कहीं है ही नहीं । हर कमरे में से द्वार दूसरे कमरे में खुलता है । जनाना हिस्सा कोठी के पीछे है और मर्दाने हिस्से में हर सुभीते के साथ परिवार के हर सदस्य के लिए अलहदगी और एकान्त है । मैं कुछ सङ्कीर्णता में पला हूँ । वैभव का प्रसार मुझे अच्छा लगता है। ऋषि-मुनि गुहाओं में रहते थे । पर गुहा शब्द की ध्वनि में मेरे मन को प्रसाद प्राप्त नहीं होता । छोटी जगह, जहाँ से आकाश कट गया है और सिर छत से छू जाता है, जैसे वहाँ सीधे खड़े नहीं हो सकते, झुककर ही बैठना होगा, गुहा से कुछ ऐसा लगता है। नहीं वह नहीं। खुले में मन खुलता है। या कमरा हो तो हालनुमा, जहाँ छत है तो बहुत ऊँची और दीवारें दूर-दूर जैसे कि काफी आसमान इसमें आ गया है । मैं मकान चाहता हूँ, तो प्रशस्त - कक्ष और उन्नत भाल । सच तो यह है कि जिसे खुला - पन चाहिए वह मकान के चक्कर में ही न पड़े। मकान वही जो घिरा है । सब ओर से घिर कर सिर्फ दर्वाजे के भीतर से वह
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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