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वह अनुभव
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कभी-कभी होता है कि हम अपने से घिरे नहीं होते । मामूली तौर पर यह या वह हमें व्यस्त रखता है । पर चेतना की एक घड़ी होती है कि जब हम जागे तो होते हैं पर रीते भी होते हैं । उस समय जो सच आँख खोले हमें नहीं दीखा करता वही भीतर
ति हो जाता है । जान पड़ता है कि जिन आदमियों ने किन्हीं गहरी सचाइयों का आविष्कार किया है, वह उन्होंने ऐसे ही क्षणों में उपलब्ध की हैं। स्वयं में वे हार रहे हैं और उनका अभिमान उनसे छूट गया है । उस समय मानों वे अपने को कुल का कुल खोलकर बस प्रतीक्षा में हो रहे हैं । कुछ उनको तब उलझाए नहीं रहता । उसी मुहूर्त्त उनके अन्तर मानस पर सचाई की रेख दीपशलाका की भाँति खिंच रहती है।
सच एक जगह छोड़कर दूसरी जगह तो है नहीं । वह सब कहीं है। असल में है तो वही है। हम ही अपने-अपने चक्करों में हैं; इससे वही सब जो हम में से हर एक में है, और सब कहीं है, हमें अगोचर ही रहता है । उसमें रहकर भी हम उससे बचे रहते हैं। उसके भीतर होकर हम मुक्त ही हैं, पर अपने में होकर हम खुद ही जकड़ रहते हैं ।
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