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________________ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] उनका चित्त ऐसा खिंच रहा है कि बस 'बाहि' पुकार रहा हो। कुछ काम से घर छोड़कर अगर आये भी थे, तो उन्हें उसका ध्यान न था। तब से ही जब से साधु घर से टला, और क्रोध का जो ज्वार आया था, वह उतरने को लाचार हो गया, और पत्नी उन्हें अपने से निबटने को स्वतन्त्र छोड़ अपने कमरे में आकर पलंग पर पड़ गई तब से ही कुछ काम पाकर इस घर से निकल जाने की उन्हें जल्दी थी। तब से ही वह बाजार में कभी इससे मिल और उससे बोल, कभी यह कर और कभी वह कर, इस तरह, बिना क्रम और पद्धति के घर के बाहर समय काटने में लग गये थे। चुपचाप शाम का खाना खाकर, अपने को फुर्सत न देने के ख्याल से फिर यार-दोस्तों में पहुँच गये थे। अत्यन्त उच्छङ्कल आनन्द में अपने को वह वहाँ भुलाये रहे थे । बहुत रात बीते ऐसी हालत में घर पहुँचे थे, जिससे नींद आ जाने में देर न लगे और इधर-उधर की बातों को तंग करने का अवकाश न मिले । आखिर अगला दिन जब आ ही गया और नींद, जो बहुत देर में उन्होंने तोड़ी, टूट ही गई और घर में किये जाने वाले नित्य-नैमित्तिक कर्म भी समाप्त हो ही गये, तब फिर घर से बाहर निकल गये । कह गये, जल्दी ही लौटूंगा; लेकिन बाहर जाकर जल्दी लौटने की चाह न रही, चाह तो कहते वक्त भी न थी। पत्नी ने भी इस सम्बन्ध में धोखा न खाया । पहले तो उन्हें आशा थी कि पति को अपने कृत्य पर अताप होगा और वह शाँति और क्षमा की याचना करने उनके पास आएँगे । यह आशा बिलकुल न होती, तो वह सीधी जाकर पलंग पर न पड़ सकती; किन्तु यह आशा जिसमें रस था, जो फूल की तरह आँसू, या श्रोस के एक कण का अभिषेक पाने के लिए, उद्यत-मुख, मुकुलित आकाँक्षा मन में दुबकाये, अपने सौभाग्य-चुम्बन की प्रतीक्षा में यों चुपचाप एक ओर श्राकर बैठ गई थी, वह आशा अतृप्त रह
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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