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________________ व' गैवार २२५ नहीं जो इस विध भर न जाय । मुझसे अवश्य कहो, पर, यह भी अवश्य करो। प्रेम गड्ढा छोड़ जाता है, काल का काम है बैठा-बठा, ऐसे गड्ढों को भरे। वह प्रेम भयावह है जिसमें प्रभाव नहीं तृप्ति है, वह तभी तब घृण्य हो उठता है। उसमें कविता नहीं रहती, मानवता नहीं रहती; निरी कामुकता रहती है। प्रेम प्रेम तब है जब दोनों ओर अभाव है, दोनों ओर आशा शेष है, निराशा वर्तमान है। उस अभावमय भाव और आशा-सिंचित निराशा की धूनी देकर जब हम विराट की आरती करते हैं, कहते हैं-हे राम, मैं प्रतिक्षण मर रहा हूँ, पर तेरे लिये जी रहा हूँ, तभी हमें आलोकमय जीवन की स्फूर्ति प्राप्त होती है। विनोद, जो इस तरह एक बार मरकर जिया है उसने जीवन का स्वाद जाना है। ...विनोद, निराशा से छुट्टी पाने के लिये मत मरो, उसे अपना लो, और उसे निर्माल्य बना लो। देवता को तुम्हारी निःशल्य वेदना का अर्घ्य ही सर्वप्रिय होगा । इसी भाँति तुम निर्वेद होगे।" ___आप लोगों से मैं कहूँ, विद्याधर ने यह सब कहा, पर लगा, जैसे वह अपने को ही कह रहा है, मुझे नहीं कह रहा है। जब वह इस तरह कहता है, मुझे अतीव सुख होता है। मैं ही हूँ जो उसके हृन्मर्म में से ऐसी गुह्य परमाकाँक्षा के खिंच आकर बाहर उद्दीप्त हो उठने में उपयुक्त उपलक्ष्य बनकर काम आता हूँ, यह पाकर मुझे सुख होता है। मैं वहाँ और नहीं ठहरा, चला आया। "क्या आप समझते हैं, वह विद्याधरै फिर मेरे यहाँ पाया ? पर, मैं कह रहा हूँ, वह पाया। मैंने कहा, "पायो ! धन्य भाग्य !" उसने कहा, “वह आदमी लौट कर आया था। और मैं सम
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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