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________________ व' गंवार २१७. उसकी बड़ी लियाकत यह है कि वह अपने को लायक नहीं समझता । मैं भी बहुत उससे नहीं मिलता । जरूरत होती है, तभी मिलता हूँ । जरूरत क्यों होनी चाहिए, यह आप पूछ सकते हैं । हम सम्भ्रान्त कैसे, जो निम्न से मिलने की जरूरत हमें हो ! किन्तु मैं आप से कहता हूँ, मैं अपने को लेकर कभी-कभी बड़ी दुविधा, बड़े क्लेश में हो जाता हूँ । फूट-फूटकर मुझे अपने आँसू बहाने होते हैं । यहाँ आपके सामने विज्ञ धीमान् बनकर घण्टों हँसता हुआ जो बड़ी बातें सुनाता रहता हूँ, सो इसी कारण कि घड़ी - आध घड़ी अकेले में किसी अज्ञेय के मामने, धरती पर लोटकर, अपने को श्रज्ञ निम्मातिनिम्न बनाकर रो लिया करता हूँ । खैर, जब जी ऐसा होता है, बे-काबू हो जाता है, भीतर से फटकर बहना चाहता है, और मुझे चारों ओर एक ऊष्म उसाँस का वलय घुमड़ता हुआ ऐसा दीखता है जैसे विकल हो, हाय ! कि वह तरल होकर टप टप टपक क्यों नहीं जाता, तब मैं चुप, सिर हाथ में लेकर बैठ रहता हूँ, कहीं नहीं जाता । और, कुछ रुककर विद्याधर के यहाँ जाता हूँ । मैंने विद्याधर के कमरे में प्रवेश किया और देखा कि एकआदमी जूतों के पास, टाट पर, कमरे की छत देखता हुआ बैठा है और विद्याधर मेज पर चिट्ठी लिखने में लगा हुआ है। मैंने अँगरेजी में विद्याधर से कहा, "विद्याधर, यह किसे बिठाल रखा है ?" विद्याधर ने एक साथ मेज पर से मुँह उठाया, "क्या !" उसने भी देखा कि एक आदमी बैठा हुआ है। जैसे उसे यह पता न था । विद्याधर ने उससे कहा, "मैंने आपसे कह दिया था, स्वामी जी यहाँ नहीं हैं। मुझे मालूम न था, फिर भी आप बैठे ही रहे हैं ।"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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