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________________ २०४ जैनेन्द्र को कहानिया [छठा भाग] ड्राफ्ट खेल रहे थे। किसी भी खेल में श्री हारने से इतना डरती हैं कि ड्राफ्ट जैसे खेल में बराबर हारती हैं। जितना हारती हैं उतना ही हारने का डर और जीतने की इच्छा उन्हें सताती है । इसलिए और खेलती हैं; और और हारती हैं। और, और हारती हैं, और और खेलती हैं। रोटी एक तरफ गई और खेलते-खेलते कोई एक बज आया। क्या जाने यह भी बता रही हो कि घोड़ी की दशा पर मन में जो बेचैनी उठती थी, उसे हठात् अस्वीकृत करने के लिये हम यों खेल रहे थे। मन के हर एक असन्तोष को लेकर हम यह आवश्यक बना लेते हैं कि यह दबा रहे, या पास न आये। व्यस्तताओं का बोध सृष्ट करके हम उसे दबाते हैं, और वक्त टालकर उसे दूर हटाते हैं। हम घोड़ी की तात्कालिक परिचर्या में नहीं लग सकते थे, तब आवश्यक था कि किसी भाँति इतने व्यस्त रहें कि उसका ध्यान हम से परे रहे । सो, शायद, हम खेल रहे थे । मित्र को तो भला अभी लौटना क्यों था ? इतने में देखता हूँ, श्री एकदम उठ कर अन्दर भागी जा रही हैं। मैंने कहा, "क्यों-क्यों ?" ज्ञात हुआ कि सामने से एक अंग्रेज भद्र-पुरुष हमारी ओर ही बढ़ते हुए आ रहे हैं। मोटर सड़क पर खड़ी है। आकर उन्होंने कहा, “सड़क पर एक घोड़ी है। आपकी है ?" मैंने कहा, "नहीं, पर कहिये।" | उन्होंने पूछा, "आपने उसके बारे में क्या सोचा है ?" "निस्सन्देह उसका इलाज कराया जायगा। नहीं तो जिले के शहर के अस्पताल में भेजा जायगा । हाँ, वह दूर है।" सज्जन-"छब्बीस मील है । मैं डाक्टर हूँ। वह अच्छी नहीं हो सकती।" मैं-"डर तो हमें भी है। पर, भरसक करना हमारा काम है।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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