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________________ १६० जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] श्रीमतीजी की तब की रौद्र-मूर्ति का ख्याल आता है तो अब भी जाने क्या मन में होता है । पर उस वक्त उन पर जैसे नशा सवार था। उनके हाथ में बेंत थी। उन्होंने उसे दिखाकर सिर्फ एक शब्द कहा, “चुप ।” __ जाने क्या हुआ कि मिसरानी एकदम चुप पड़ गई । तब श्रीमतीजी ने खुद आगे बढ़कर कहा, "चलो।" सबसे कहा, "श्राप लोग जाइए।" वह इतनी ठण्डी जुबान थी कि जो निकला वही हुआ । उसके बाद फिर मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि क्या हुआ ।श्रीमतीजी से ही जान के मालूम हुआ कि उसे वह एक कोठरी में ले गई। वहाँ पूछकर उसके सारे जीवन का इतिहास जाना । उसके बाद उसने शनैः-शनैः अपना दोष स्वीकार किया । फिर उसे खुद राजी किया कि उसे सजा मिलनी चाहिए। फिर अपने हाथों से, बेंतों से उसे बेहद पीटा। ___ और बात मैं नहीं जानता, आपसी बातचीत जो उनके बीच हई हो । लेकिन उनके वेंत से मारने और उस मार पर मिसरानी के चीखने की आवाज मैंने भी सुनी थी। उसके तत्काल अनन्तर श्रीमतीजी आई, ओंठ उनके नीले थे और हाथ अब भी काँप रहा था । पर हँसकर अय्यर को उन्होंने उनका पर्स दे दिया । कहा, "देख लीजिए सब ठोक है।" अय्यर ने बिना देखे कहा, "ठीक है।" बोली, "नहीं, देख लीजिए ।" अय्यर ने सब चीजें देखकर सँभाली, कहा, "सब ठीक है।" श्रीमतीजी ने हँसकर कहा, "देखिये मैंने कितनी मेहनत की है । मुझे इमाम नहीं दीजिएगा ? आपके तो रुपये जा ही चुके थे, इससे सब रुपये भी अपने इनाम में मैं माँग लू तो बेजा नहीं है।"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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