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________________ चोरी १७१ महाजन भी उसे रोज़ रास्ते में टोककर-'देने होंगे' के साफसाफ़ निर्धान्त अर्थ समझाने लगे। 'देने होंगे-सीधी तौर से, नहीं नालिश से ।' 'नालिश !-नालिश से वह डरता था। कितनी शक्तिशालिनी, वनकठोरा, यह पिशाचिनी है नालिश! उसने उसके लाल-पगड़ी के जो दूत देखे थे-उनसे ही उसकी भयंकरता का अन्दाजा लगाकर वह काँप गया। उसने कहा, “महाजन, मैं दे दूंगा, धीरे-धीरे सब दे दूँगा, पर नालिश नहीं।" __महाजन ने भी सीधे तौर से कह दिया, “तीन साल तो हो गये। अब कब तक बैठा राह देखू गा ?" लक्खू ने गिड़गिड़ा कर कहा, “मेरी इज्जत महाजन, तुम्हारे हाथ है, नालिश नहीं।" लेकिन इज्जत को हाथ में लेकर महाजन को सन्तोष न था, वह तो पचास रुपया चाहता था, इसलिए उसने ठहरने में अपनी स्पष्ट असमर्थता जतला दी। ___ यहाँ कहा जा सकता है कि पचास में महाजन की सम्पत्ति नहीं लुटती थी, उनकी महाजनी फिर भी बहाल रहती। हाँ, पचास में उस लक्खू की जान, लक्खू के आश्रित छह और जनों की जान बचाई जा सकती थी, उन सबकी अनन्त कृतज्ञता कमाई जा सकती थी और यह कुछ टोटे की कमाई न थी। तिस पर ये वे रुपये थे, जो झूठ की तरह शून्य में से उत्पन्न होकर बहुत थोड़े समय में पचास बन गये थे ! लेकिन महाजन की ओर से हम यह कह देना चाहते हैं कि वह यदि ऐसी थोथी सलाहों में पड़ते, तो महाजन नहीं हो सकते थे। और वह मूर्ख नहीं हैं। वह अपने मौके को पहचानते हैं, और उसे खाली नहीं जाने दे सकते । __ जैसे हमने इन्द्र का वैभव नहीं देखा, वैसे बेचारे लक्खू ने कभी इकट्ठ पचास रुपये नहीं देखे थे। कहाँ से कैसे वह वैभव को प्राप्त करे ! एड़ी-चोटी का पसीना एक करके, नसीब से लड़कर,
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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