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________________ कश्मीर-प्रवास के दो अनुभव अब तो घोड़े आ ही गये ! उगली बात को निगला तो नहीं जा सकता। महात्माजी ने गम्भीर भाव से कहा, "यहाँ ले आओ, इधर । "और जब बरामदे के चबूतरे के साथ ही वे घोड़े आ लगे, तब हमसे कहा, "चलो, बैठो।" हमारी शंकितचित्तता को उन्होंने देख दिया और कुछ मुस्कराकर कहा, "चलो; बैठो भी। हम चारों जने बारी-बारी से एक-एक घोड़े पर बैठ गये।" ___ बैठ तो गये; पर मजा कहाँ । स्फूर्ति का पता नहीं। जैसे कैदी बनकर जा रहे हैं । मन में उत्साह की जगह अाशंका थी। घोड़ों पर जैसे हम नहीं बैठे थे, हमारा बोझ लदा था। हमारे बोझ के नीचे वे घोड़े भी सिर झुकाये खुट्ट-खुट्ट चल रहे थे। 'जा तो रहे हैं; पर फिर होगा क्या'- यही विचार हमारी चेतना पर जाकर बैठ गया, जैसे कोई विषाक्त गैस हमारे भीतर फैलकर छा बैठी हो । हमारा आनन्द सुन्न हो गया। ____ अब बोलो, हम पर क्या श्राफ़त थी ? सबका जिम्मा लेकर जब महात्माजी ने सब-कुछ किया और उसका बोझ भी वह उठायेंगे और उठाने को तैयार हैं, तब हमसे क्या इतना भी नहीं हो सकता कि व्यर्थ बहुत चिन्ता के नीचे हम न पिसें ? लेकिन जब देखते हैं, तो पाते हैं, महात्माजी के चेहरे पर कोई वैसा त्रास का भाव नहीं है, वह साधारणतः निश्चिन्त प्रफुल्ल से ही दीख पड़ते हैं। मुझे लगा जैसे महात्माजी यह अच्छा नहीं कर रहे हैं। आफत बुलाई, और अब उसकी तरफ पीठ करके उसे देखना नहीं चाह रहे हैं, और हँस रहे हैं। उस आफत की तरफ पूरी तरह देखने से हम कैसे इन्कार कर सकते हैं ! . अपनी दृष्टि से यह बात हमने महात्माजी से बहुत स्पष्टता से कही। कहा, "महात्माजी, क्या होगा ?" महात्माजी ने कुछ मुस्कराकर ही कहा, "भाई, जो हो गया, सो हो गया। और, जो होगा सो हो जायगा।..."
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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