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________________ १५१ कश्मीर-प्रवास के दो अनुभव आखिर, रावलपिंडी आ गया । और उन लोगों को अचरज हुआ, जब अपना परिग्रह जिस किसी को सौंपकर जरूरी कपड़ा अपनी कमर से कसकर मैं भी उन लोगों के साथ चल पड़ने को तैयार हो गया। हम चल पड़े। कुछ घटनाएँ ऐसी घट जाती हैं, कि उन्हें संयोग कह देने से जी को तृप्ति नहीं होती । संयोग के अतिरिक्त उन्हें और कुछ कहने का साहस भी कैसे हो ? बुद्धि वहाँ आकर रुक जाती है, और उनसे टकराकर सुन्न होकर बैठ रहती है। आगे उसके लिए धरती नहीं, राह नहीं, गति नहीं । कुछ भी चीन्ह पाने का आगे सुभीता नहीं-बस ऊपर, नीचे, भीतर, चारों ओर से हमें घेर कर जो महाशून्य अटल रूप में अवस्थित है, खोखला, निर्भेद्य, फिर-फिरकर दीवार-बना हुआ-सा वही वह हमारे सामने आ रहता है । और उसके नीले तल पर, हमारी आँखों की सीध में, आ ठहरती हैं, वे घटनाएँ, जो व्यंग और भेद की हँसी में चमक-चमककर मानो पूछती हैं, 'बताओ तो भला, हम क्या हैं,कौन हैं ?' उस समय उस अज्ञात के तट पर खड़े होकर जी होता है, हम उसके अनन्त गर्भ की नीलिमा में आँखें फाड़-फाड़कर कुछ देखने की स्पर्धा में अन्धे क्या बनें, क्यों नहीं हम आँख मूंदकर घुटनों आ बैठे, दो बूँद आँसू ढर जाने दें और गद्गद् कण्ठ से गुहार दें, 'हे अज्ञात, तू ही है। हम सब और हमारा समस्त ज्ञात तेरे गर्भ में है, और तू उससे परे है, अज्ञात है । तू ज्ञात नहीं है, इसमे तू ही है, तू ही सत्य है । मैं तुझमें, तेरी शरण में हूँ।' आगे ऐसी ही दो घटनाओं का उल्लेख करेंगे, जो कश्मीरप्रवास में हमारे साथ अतक्ये रूप में घट गई।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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