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________________ कश्मीर-प्रवास के दो अनुभव बुला ली । 'तुम्ही बताओ नहीं तो हिन्दी क्या होती है ?' उनकी हिन्दी की धाक माने बिना गुजारा नहीं । यों सदा कहते रहते, कि मुझे हिन्दी सिखा दो, हिन्दी सिखा दो। महात्माजी के पक्के साथी बनकर वह आये थे । जीवन-भर हिमालय के हिम और वन में ही रह जाने की बात आये, तो उसके लिये भी उद्यत । 'एम्बिशन' नामक वस्तु से उनका परिचय पुराना हो गया और उस शहरातिन से ऐसी पक्की छुट्टी ले बैठे थे, कि उसे उठने की हिम्मत न होती थी। भीतर कहीं थी भी, तो मुर्भाई, बेजान पड़ी थी। इनके भीतर रहकर वह भूखी मरती थी। ___ महात्माजी और इनके बीच ही कुछ तय पाया था, और इस यात्रा का सूत्र-पात हुआ था। रेल में मुझे पता चला, कि जा कश्मीर ही रहे हैं; पर बात जरा टेढ़ी है । रावलपिंडी से रेल छूट जायगी, और किसी सवारी के आसरे की कल्पना को भी परे रखना होगा, और फिर पैदल कन्धे पर सामान रखकर चलना होगा। मेरे साथ ट्रंक-वेडिंग था। मैंने बताना प्रारम्भ किया, कि किस तरह पीठ पर सामान लादकर चलना बहुत सुन्दर दृश्य उपस्थित न करेगा। इस तरह लौटकर पीठ को साबित ही पाने का भरोसा भी पूरा नहीं है, और यह, कि यह सब-कुछ नितान्त अकल्पनीय धारणा है। पर अकल्पनीय हो, कुछ हो, साथ चलना हो, तो मैं वैसे साथ चलने को तैयार हो जाऊँ, नहीं तो अपना रास्ता देखू और मौज करू। और इस प्रकार मुझे सम्पूर्ण स्वातंत्र्य देकर वे तीनों मुझ पर हँसने लगे। मैंने मन में समझ लिया कि इनकी यह हँसी मुझ से नहीं
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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