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________________ २३४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] मैंने पूछा, "वह पेड़ गिरा कैसे ? उसने कहा, "गिरा तो था, जी, किसी आँधी के झोंके से। और सच बात तो यह है कि उसकी आयु सम्पूर्ण हो गई, तो गिर गया। और भगवान् की ऐसी ही मर्जी होगी। कोई चीज़ सदा तो जीती नहीं । पर जगतराम समझता है, उसने दो रात पहले उसकी मौत मनाई थी, सो उससे गिरा । इसी का तो उसे बड़ा सोक है । पर हम-तुम क्या करते हैं, सब-कुछ ईश्वर करता है, यह समझाते हैं, तो वह सोक में कुछ नहीं समझ पाता।" मैंने कहा, "उसने उसकी मौत क्यों मनाई थी ?" उसने कहा, "मौत क्यों मनाई थी, जी, इसका तो लम्बा किस्सा है । उस पर झगड़ा चल निकला था । एक कहता था कि यह आधा पेड़ मेरा है, मेरी ज़मीन यहाँ तक आई है । और वह कहता था कि पेड़ पुराना हो गया है, अपने हक़ से मैं इसे कटवा डालूँगा । फल कुछ आते हैं नहीं, लकड़ी बहुत-सी काम की निकलेगी। बात बाबूजी, सब झूठ थी । पेड़ पुश्त-दर-पुश्त जगतराम के ही घर में चला आ रहा है । पर लाठी पास हो, तो किसी की भैंस हेर लो । कोई बोले तो लाठी है ही। सो, आज-कल जबर्दस्त का सब-कुछ है। अदालत भी उसकी है, दोस्त भी उसके हैं, पैसा भी उसका है। ये सब आपस में एक-दूसरे के बन कर रहते हैं । और उसके पास पेड़ नहीं थे, सो बात नहीं थी। कईकई बारा थे । लकड़ी की, और पैसे को किसी बात की कमी नहीं थी। पर कमी नहीं होती, तभी तो रार सूझती है। काम करना पड़ता नहीं, उन्हें कहा, "ठाले-बैठे यही सही। दूसरे की जान पर आती है, उन्हें ठाले-बैठे का धन्धा हो जाता है । सो, जगतराम को संशय नहीं रह गया कि पेड़ आधा उसके हाथ में चला जायगा, और वह उसे कटवा डालेगा । पेड़ को जीते-जी कटता हुश्रा जगतराम कैसे देखेगा? सो, उन्ने मनाया, राम इसे गेर दे।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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