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________________ १२६ माम का पेड़ रहा है। अभिनय के भाव से, जिसमें से यथार्थता का भाव अपने आप दीख पड़ रहा था, कहा, “ऐसी कि बस!" यही बात प्रमोद ने मुझसे पूछी। मुझे भी कोई उपयुक्त उपमा हूँढे नहीं मिली । यह प्रकट कर दिया कि अतीव सुन्दर है । ___ किन्तु हमारे विनोद और अभिनय का भाव उस समय टिकना कठिन हो गया, जब हमने देखा की बारी-बारी से वह प्रश्न हम में से हरेक से किया जा रहा है और हर एक उत्तर में यही जताता चला जा रहा है कि उसकी-सी प्रेयसी की मूरत और कहीं नहीं मिलेगी। और बात किसी की भी झूठ न थी। क्योंकि हममें से जो विवाहित थे, अनिवार्य रूप में उनकी प्रेमिका उनकी विवाहित पत्नी नहीं थीं। और जो अविवाहित थे, उनकी प्रेयसी वह थीं, जिनसे विवाह असम्भव-प्राय होता । कारण, अप्राप्य में ही श्रादर्श का आरोप है, और वहीं पहुँचकर आकांक्षा गड़ती है। ___ हममें से एकाध ही शेष रह गया था कि प्रेमकृष्ण ने कहा, "यह क्या तमाशा बना रहे हो, प्रमोद । कुछ कहते भी हो कि सबका भेद ही लेने चले हो !" प्रमोद ने इसकी पर्वाह न करते हुए, हम में से शेष बाबू वंशलोचन की ओर मुड़कर कहा, “हाँ, साहब, अब आपकी ?" बाबू वंशलोचन ने आधे ओठों से नपी हँसी हँसी, और उत्तर देने में तत्क्षण अपने को समर्थन पाया। इस अपनी असमर्थता पर झंपते हुए वह फीके होकर बलात् मुस्कराते रहे। ___"आपकी प्रेयसी कोई नहीं है ? कोई नहीं ? ?-आपको अभागा कहूँ, या भाग्यवान ?" वंशलोचन और अधिक फीके हुए और तनिक अधिक ओठ फैलाकर हँसते रहे, बोल न सके । "अरे भाई और कोई न सही, तो तिजोरी तो होगी ? यह भी नहीं कह सकते कि वह बड़ी सुन्दर है ?"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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