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________________ प्रातिथ्य १११ जरा-जरा...। मैं बड़ा सभ्य बन रहा हूँ, मानो वह तराश भी मेरे पेट में जाकर बैठ रही हैं। स्वामीजी बड़े प्रसन्न हैं। एक बात भूल गई, गायों को दुहने वाले आदमी को छह रोज हुए एक गाय ने लात मार दी थी। उसके आँख में लगी, आँख बेकाम हो गई, और उसे अलहदा कर देना पड़ा। अभी तक दूसरे आदमी का बन्दोबस्त हो नहीं पाया है, इसलिए उससे ही काम चलाना पड़ता है । इस तरह मिकदार से आठ पौण्ड दूध कम दुहा जाता है । कारण बताया गया drage "दुहने की एक खास प्रणाली होती है, जोर भी पड़ता है। आदी होने की बात है— जो नहीं जानता वह... ।" लेकिन कारण जानने को हम बहुत उत्सुक नहीं हैं । बस, हो गई बात कि आठ पौंड दूध कम होता है । तो शाम हो रही है। अब चलना चाहिए। उधर सामने ही पौने दो सौ पौण्ड दूध तुल चुका है । अब सील लगा के बाजार में जायगा । बँधे गाहक हैं, वहीं पहुँच जाता है। बल्कि आठ पौड कम दूध होने से बड़ी मुश्किल हो रही है। डिमाण्ड ज्यादा है, सप्लाई कम — फिर उसमें से भी ये आठ पौण्ड कम हो गये हैं। बड़ी मुश्किल है। कैसा साफ़-सफेद गाढ़ा दूध भर रखा है और कितना सारा ! बच्चे ने माँ से कहा और मैंने सुना । पर मैं चुप रहा। स्वामीजी ने भी सुना, वे भी चुप रहे और हँस पड़े । आखिर बच्चे की खातिर स्त्री को बेहयाई भुगतनी पड़ी। अलग बुलाकर कहा, "बच्चे के लिए थोड़े दूध को कह दो ।" मन करारा बनाकर मैंने जवाब दिया, “हाँ-हाँ, सो क्या बात है !" मैंने फिर मित्र से कहा, "भाई, डेयरी में आये, दूध चखा ही
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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