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________________ १०५ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] बाँटा है, गायों की किस्म और तादाद और विशेषताएँ, और गुणगान और उनका महत्त्व आदि-आदि का अविरल बखान मैंने भी सुन लिया। उनकी गाड़ी में बैठा था। पर आपसे धीरज से न सुना जायगा, इसलिए जाने दें। उनका रास्ता जहाँ अलग होता था, वहाँ"अब...यहाँ..." "मैं चट से बग्घी से कूद पड़ा।" "देखो, प्रसाद, आना । किसी दिन भी आ जाना। नहीं तो मैं ही ले चलूँ ?" मैंने भी कह दिया, “यही ठीक होगा। घर पर आठ बजे मिलूंगा-चला चलूंगा-इतवार को।" "अच्छा, मैं गाड़ी लेता श्राऊँगा । ध्यान रखना।" "अच्छा ।" उमकी बग्घी चली गई और इतवार को घर पर नहीं आ सकी। पीछे पता चला, आवश्यक काम लग गया था। मेरे घर एक स्वामीजी आये हुए हैं। असहयोग के जमाने ने उन्हें अकस्मात् संयोगवश प्रसिद्धि दे डाली है। पर प्रसिद्धि उनके योग्य नहीं है। प्रसिद्धि जैसी बाजारू चीज उनके साथ लगी अच्छी नहीं लगती। वे उससे घबराते भी हैं। मुझ पर उनका विशेष अनुग्रह है । मेरे वे पिता और गुरु सरीखे हैं। मेरे इस अधःपात के जमाने में भी उन्होंने अपना अनुग्रह मुझ पर से नहीं उठा लिया है । वे बड़ी जगह ठहरने और जाने से बचते हैं, और मेरे ही यहाँ ठहरते हैं। दिल्ली की तंग गलियों और मकानों में उनकी उन्मुक्त प्रात्मा चैन नहीं पाती, इससे वे दिन में और रात में ज्यादातर बाहर
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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