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________________ १६ जनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] गया है और जैसे-तैसे रह लेता है। मिलता तो रहेगा। इसलिए जो होगा, मुझे पता लग जायगा। लेकिन मुझे कुछ पता नहीं लगा। दस दिन, पन्द्रह दिन हो गए । प्रियव्रत गया तो फिर खबर तक नहीं लौटी। उसके लिए मेरे मन में चिंता थी। कालिज में हम दोनों दो वर्ष साथ रहे थे। मैं वहाँ उसकी प्रतिभा पर मुग्ध था और उसका अनुगत था। कलिज के सभी लड़कों में उसकी धाक थी। भविष्य उसका उज्ज्वल समझा जाता था। लेकिन उस भविष्य में यह काला दुर्भाग्य कहाँ से निकल आया ? आज की उस की हालत पर मन किसी तरह गर्व नहीं मानता । अपनी और उसकी तब की और अब की तुलना पर मुझे जगत् बेतुका मालूम होता था। जिसमें कोई विलक्षणता न थी, कोई योग्यता न थी, ऐसा मैं तो खुशहाल था । और प्रियव्रत का हाल बेहाल था। मेरा मन प्रियव्रत के सोच से छूट नहीं पाता था। मैं सोचता था कि प्रियव्रत क्यों नहीं आया ? वह कहाँ है ? शायद महीने से कुछ ऊपर हो गया होगा कि एक दिन प्रियव्रत की पत्नी मेरे घर आई । उन्होंने आकर स्वयं अपना परिचय दिया, और कहा कि वह अब उस पत्रिका में जाने को तैय्यार हैं। मैं प्रबन्ध कर दूं। मैंने कहा कि प्रियव्रत यहीं हैं ? कुशल से तो हैं न ? उन्होंने कहा कि हाँ, कुशल ही कहिए। आप उनके लिए उस जगह का बन्दोबस्त कर दें। मैने कहा कि अब तो शायद है कि किसी को उस जगह रख लिया गया हो। फिर भी मैं देखूगा। कल मालूम करके निश्चित बता सकूँगा। वह चली गई, और उनके चले जाने पर मैं सोचने लगा कि वह मेरी परिचित नहीं थीं तो क्या हुआ, मैंने उसके साथ जाकर
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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