SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [ छठा भाग ] परवा करता दुनिया की । तुम जानते हो ? —तुम नहीं जानते । दो बरस मैं वह तुम्हारी कविता लिए लिए घूमता रहा । किससे नहीं मिला ? लेकिन कोई प्रकाशक उन्हें नहीं छाप सका। मैंने तब सोचा कि प्रकाशक को तकलीफ़ मैं क्यों देता हूँ। चलो, प्रकाशकों को सदा के लिए छुट्टी दे दूँ । सोचकर कविता के पुलिन्दे को मैंने जला दिया । यहाँ उसने एक साँस छोड़ी और विलक्षण भाव से मुस्कराया। फिर कहा, "कविता नहीं है तो मैं भी मुक्त हूँ । और अब मुझे किसी प्रकाशक के पास जाने की ग़रज नहीं रह गई है ।" 333 सुनकर मैं स्तब्ध रह गया । शायद मैंने प्रतिवाद में कुछ कहा । प्रियव्रत ने कहा कि उनका जलाना ग़लती तो तब हो जब मैं आगे भी कुछ लिखूँ । लेकिन उसके बाद एफ अक्षर भी मैंने नहीं लिखा, न लिखूँगा। फिर तुम इसको ग़लती कैसे कह सकते हो ? और तुम कहते हो अभिव्यक्ति ! मैंने इतने दिनों से जो कुछ भी नहीं लिखा है, इससे बताओ मेरा क्या कम हो गया है ? तब जिन्दा था, सो अब भी जिन्दा हूँ । बिना लिखे मरने की कोई ज़रूरत मुझे नहीं मालूम हुई । प्रियव्रत की स्थिति पर मेरे मन को पीड़ा हुई । मैंने कहा कि प्रियव्रत शायद मिश्रजी को तुम जानते होगे। हाँ, जो आलोचना आदि लिखते हैं। वह अब विश्राम चाहते हैं। उनके सहायक उनकी जगह हो जायेंगे और सहायक की जगह उस पत्रिका में खाली होगी । उस पर जा सकोगे ? " सहायक संपादक की !" इतना कहकर प्रियव्रत ने आगे कुछ नहीं कहा और कठिन व्यंग से थोड़ा हँस दिया। कुछ देर बाद बोला, 'वेतन होगा वही साठ-सत्तर ?"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy