________________
५४ जैनेन्द्र की कहानिया [तृतीय भाग] चौकन्नी हो-हो चारों ओर देखती थी। उसने कहा, “सेठ, मुझे देर हो रही है।"
सेठ ने कहा, "देर अभी कहाँ ? अभी उजेला है, मेरी प्यारी चिड़िया ! तुम अपने घर का इतने और हाल सुनायो । भय मत करो।"
चिड़िया ने कहा, “सेठ मुझे डर लगता है । मैं नादान बच्ची हूँ। माँ मेरी दूर है। रात हो जायगी तो मुझे राह नहीं सूझेगी।" ___ "भय न करो, चिड़िया । तुम बहुत सुन्दर हो । मैं तुमको प्रेम करता हूँ।" ___ इतने में चिड़िया को बोध हुआ कि जैसे एक कठोर स्पर्श उसके देह को छू गया । वह चीख देकर चिचियायी और एकदम उड़ी। नौकर के फैले हुए पन्जे में वह आकर भी नहीं आ सकी। तब वह उड़ती हुई एक साँस माँ के पास गई और माँ की गोदी में गिरकर सुबकने लगी ,"ओ माँ, ओ माँ !” ।
माँ ने बच्ची को छाती से चिपटा कर पूछा, “क्या है मेरी बच्ची, क्या है ?"
पर बच्ची काँप-काँप कर माँ की छाती में और चिपक गई । बोली कुछ नहीं, बस सुबकती रही, "ओ माँ, ओ माँ !" ___ बड़ी देर में उसे ढारस,बँधा और तब वह पलक मीच उस छाती में ही चिपक सोई । जैसे अव पलक न खोलेगी।