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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
मुझे नहीं है। हो सकता है कि इस तरह अनजान में आप लोग मेरी कब्र बना रहे हों। आप सच, मुझे इसमें गाड़ना तो नहीं चाहते ? कहीं यह मेरे नरक की राह ही तो नहीं खोदी जा रही है ? यह महल है कि धोखा ? मैंने महल कहा था और इधर हज़ारों लोगों को लगाकर ये खाइयाँ खोद दी गई हैं ! मैं पाताल में जाना नहीं चाहता, सूरज की धूप की ओर उठना चाहता था । "
कह सुनकर महाराज घर आये। उनके मन को मानो एक विषाद उसे डालता था । अगले दिन उन्होंने फिर मन्त्रियों को बुलाया। कहा, “मन्त्रिगण, बतलाइए कि क्यों मैं यह नहीं समझ कि आप सब मेरे खिलाफ षड्यन्त्र कर रहे हैं ?”
इन नये महाराज को एक मन्त्री ने नीति से समझाया । दूसरे मन्त्री ने हिम्मत और भय दिखला कर समझाया । तीसरे मन्त्री ने स्तुति द्वारा राह पर लाना चाहा । चौथे मन्त्री ने महाराज की मुद्रा देखकर विनम्र भाव से क्षमा माँगी।
पर इन सब के उत्तर में महाराज अविचल गम्भीर ही दीखे । पता न चला कि उन्होंने क्या समझा और क्या नहीं समझा ।
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प्रधानमन्त्री अब तक मौन थे । अब बोले, "महाराज, यदि दोष है तो मेरा है । लेकिन आज्ञा हो तो निवेदन करूँ कि राजकाज इस नीति से न चलेगा । आप नये हैं, हमारे इसी व्यापार में बाल पके हैं। पर हमारे अनुभव का कोई लाभ आप उठाना नहीं चाहते तो हम सबको छुट्टी दीजिए और क्षमा कीजिए ।"
महाराज ने कहा, "सच यह है कि मैं अपने को हो छुट्टी देना चाहता था । लेकिन, आप अनुभवी लोग भी जब छुट्टी चाहते हैं तो मैं मान लेता हूँ कि मेरी मुक्ति में देर है । आप लोगों को छुट्टी