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हवा महल
कहा, "मैं हया-महल चाहता हूँ। शेष सब-कुछ, मन्त्रिगण, श्राप लोग जानें । हवा-महल दे दें।" ___ मन्त्री, “देखिये तो, महाराज, महल का यह चित्र कितना सुन्दर है !"
महाराज, “बहुत सुन्दर है।" ___ मन्त्री, “महाराज उदासीन प्रतीत होते हैं। चित्र देखिए और कहिए, है कि नहीं सुन्दर ?”
महाराज, "अवश्य सुन्दर है। हमारी आशा जो सुन्दर है।"
मन्त्री, "महाराज, महल बनने की सूचना से प्रजा में नया चैतन्य आ गया है। शत-शत मुख से श्रापका यशोगान सुन पड़ता है।"
महाराज, “मन्त्रिगण, यह शुभ समाचार है। आप से मुझे ऐसी ही सांत्वना है।"
मन्त्री, "महाराज का आशीर्वाद हमारा बल है।" महाराज, "प्रजा की प्रसन्नता में हमारा बल है, मन्त्रिवर !"
यह हुआ, किन्तु महाराज की उदासीनता दूर न हुई। मन उनका अनमना रहता था। ऐसे देखते, जाने कहीं और हों । कभी सामने, दूर, ठहरी हुई आसमान की सूनी नीलिमा को देखकर अवसन्न हो रहते। उनके मन पर जैसे यह शून्यता छाए आती हो, छाए पाती हो।
उधर काम जोरों से होने लगा। नगर में मानो चैतन्य का एक पूर-सा आ गया । आदमी ही आदमी, श्रादमी ही आदमी ! हजारहा धादमी दूर-दूर से सिंच कर वहाँ मजूर बनने लगे और ऐसा कोलाहल मचने लगा, मानो लोग प्रसन्नता से ही मत्त हुए जा रहे हैं। और जाने कहाँ-कहाँ का सामान वहाँ इकठ्ठा हुधा,