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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] शल्य उसकी मुक्ति में काँटा है। उसके चित्त में यह खटक बनी हुई है कि जिस भूमि पर वह खड़ा है वह भरत के राज्यान्तर्गत है।"
. बाहुबली के कानों में जब यह बात पहुँची, मन का काँटा एकदम निकल गया। जैसे एक साथ ही वे स्वच्छ होगये। आँखें खुल गई, मौन-मुख मुस्करा उठा। उस मुस्कराहट में मन की अवशिष्ट प्रन्थि खुलकर बिखर गई और मन मुकुलित होगया। ___उनके चहुँ ओर वन में उस समय असंख्य भक्त नर-नारियों का मेला-सा लगा था। उन सबको अब उन्होंने अस्वीकार नहीं किया, उनका आवाहन किया। अपने आराध्य की यह प्रसन्न-वदन-मुद्रा देखकर लोगों के हर्ष का पारावार न था। बाहुबली ने अपने को उनके निकट हर तरह से सुगम बना लिया । कहा, "भाइयो, तुमने इस बाहुबली को आराध्य माना। उसकी आराध्यता समाप्त होती है। तपस्या बन्द होती है। तुमने शायद मेरे काय-क्लेश की पूजा की है। अब वह तुम मुझ में नहीं पाओगे। इसलिए मुझे आशा है कि तुम मुझे पूजा देना छोड़ दोगे। और यदि मेरी अप्राप्यता का तुम आदर करते थे तो वह भी नहीं पाओगे। मैं सबके प्रति सदा सुप्राप्त रहने की स्थिति में ही अब रहूँगा।"
बाहुबली ने निर्मल कैवल्य पाया था। ग्रन्थियाँ सब खुल गई थीं। अब उन्हें किसी की ओर से बन्द रहने की आवश्यकता थी ? वे चहुँ ओर खुले, सबके प्रति सुगम रहने लगे।
यह देख धीरे-धीरे भक्तों की भीड़ उजड़ने लगी और परम योगी बाहुबली की शरण में अब शान्ति के लिए विरल ज्ञानी और जिज्ञासु लोग ही आते थे।