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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] राज्य से बाहर भी बहुत प्रान्त हैं, जिनको व्यवस्थित शासन तुम्हें देना है । मैं तो लोगों के मान लेने से उनका मुखिया हो गया था। उनको मुझे राजा कहने में सुख मिला । मैंने कहा, अच्छा । लेकिन तुम को साम्राज्य बनाना है। अपने लिए नहीं, लोगों में एकत्रता लाने के लिए । तुम को विजय-प्रसार का कर्तव्य भी करना होगा।"
भरत ने कहा, “महाराज, आप दीक्षा क्यों लें ? मैं विजयध्वज फहरा न आऊँ और अपने को समर्थ न समझ लूँ तब तक आप अपना आशीर्वाद मुझ पर से न उठावें।"
आदिनाथ ने कहा, "पुत्र, अब समय आता जाता है कि राजा शासक अधिक हो, प्रजा का हमजोली उतना न हो। राजैश्वर्य से युक्त राजा को देखकर प्रजा समझती है कि उसने कुछ पाया है । तब तक उसका चित्त तुष्ट नहीं होता। मैं तो प्रजा के निम्नातिनिम्न जन से अपना हमजोलीपन नहीं तज सकता। किन्तु तुम्हारे लिए यह अनिवार्य नहीं है । तुम राजपुत्र हो। मैं तो साधारण पिता का पुत्र हूँ और जिस पद से शासन की आशा है उसके सर्वथा अयोग्य बन जाना चाहता हूँ। मुझे लोगों के दुःख में जाना चाहिए और मुझे उस मार्ग में से चल कर अपना कैवल्य पा लेना चाहिये।"
भरत ने निरुत्तर होकर सिर झुका लिया।
अगले दिन आदिनाथ ने दीक्षा ले ली। समस्त वस्त्राभरण और नगर त्याग कर वे निर्ग्रन्थ विहार कर गये । और भरत, चुप मन, जय-यात्रा पर चल दिये।
पृथ्वी के छहों खण्डों पर विजय स्थापित कर और बहुभाँति के मणि-मुक्ता, हय-गज और कन्या-सुन्दरियों की भेंट से युक्त
भरत धूमधाम के साथ नगर को लौट कर आये। . किन्तु जब भरत नगर में प्रवेश करने लगे तब विचित्र घटना