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बाहुबली
बहुत पहले की बात कहते हैं । तब दो युगों का सन्धि-काल था। भोग-युग के अस्त में से कर्म-युग फूट रहा था। भोग- काल में जीवन मात्र भोग था । पाप-पुण्य की रेखा का उदय न हुआ था । कुछ निषिद्धन था, न विधेय । अतः पाप असम्भव था, पुण्य अनावश्यक | जीवन बस रहना था । मनुष्य इतर प्रकृति के प्रति अपने आप में स्वत्व का अनुभव नहीं करने लगा था और प्रकृति भी उसके प्रति पूर्ण वदान्य थी । वृक्ष कल्पवृक्ष थे । पुरुष तन ढाँकने को बल्कल उनसे लेता, पेट भरने को फल । उसकी हर बात प्रकृति श्रोढ़ लेती । विवाह न था और परस्पर सम्बन्धों में नातों का आरोप न हुआ था । स्त्री माता, बहन, पत्नी, पुत्री न थी; वह मात्र मादा थी । और पुरुष नर । अनेक थल चर प्राणियों में और उन्हीं की भाँति जीता था ।
मनुष्य भी एक था
उस युग के तिरोभाव में से नवीन युग का आविर्भाव हो रहा था । प्रकृति अपने दाक्षिण्य में मानो कृपण होती लगती थी । उस समय विवाह ढूँढ़ा गया। परिवार बनने लगे, और परिवारों में समाज । नियम-कानून भी उठे । "चाहिए" का प्रादुर्भाव हुआ
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