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एक दिन दिवाली कब की बीत गई। बार-बार लिखने की शकि मेरी कब बीत जाय, जानता नहीं......"
खुश होकर मैंने उस कार्ड को अपने पास खींच लिया। लिखा, "......शक्ति कब एकदम बीत जाय, सच, नहीं जानता। आप नहीं जान सकते, ताँबे के हर पैसे की जरूरत में होना क्या चीज है। पर क्या आप मुझ से सुनकर मान भी नहीं सकते कि यह बड़ी चीज है, भारी चीज है ? किताब के मेरे पैसे आप......"
सुना, कि घर में कहीं मेरी जरूरत है। गया, कि बहन ने कहा, “देख भाई, यहाँ प्रा!"
कमरे में ले गई, और दिखाया, एक कोने में रूठा लल्लू बैठा हुआ है । मुंह फूला है, और लड़ता है।
मैंने कहा, "क्या है, रे ?"
बहन ने कहा, "वह शरम के मारे मदरसे नहीं जाता। मास्टर कहते हैं। और स्लेट उसकी फूट गई है।"
लल्लू ने चिल्लाकर कहा, "तो मैंने नहीं फोड़ी-हाँ-तो..." मैंने कहा, "तो, क्यों रे, मदरसे नहीं जायगा तू ?"
वह गुम हो बैठा, और बहन ने हँसकर कहा, "यह तो नहीं जायगा ! देखो न, लड़का होकर शरम सताती है ! एक भद्दी मोटी स्लेट लाकर दे दे, नहीं तो, अच्छी स्लेट रोज-रोज इसे तोड़ने के. लिए कौन लाता फिरेगा ?"
लल्लू ने चिल्लाकर कहा, "मैंने नहीं तोड़ी है स्लेट ।"
मैने कहा, "तो चल रे, स्कूल चल, दुपहर आ जायगी तेरी. स्लेट "
मैं लौटकर आने लगा। बहन ने कहा, "देख, ला दीजो भाई स्लेट आज दोपहर । नहीं