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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] ____ मैंने जोर से कहा, "घी नहीं है तो वक्त के वक्त कहा जाता है ! पहले से क्यों नहीं कहकर रखा ?"
"पहले से नहीं कहा ! कब से तो कहती आ रही हूँ।"
मैंने और जोर से कहा, "नहीं कहती आ रहों। एक बार कहतीं तो न आ जाता ?" ___ उसने धीमे से कहा, "तो अब कह रही हूँ, सही। अभी मँगा दो।" ___मैंने जोर से कहा, "और नहीं भी मँगा दूंगा क्या ? घी के बिना मुझ से एक दिन न खाया जायगा।"
"और दूध-वाला.......?"
मैंने कहा, "फिर वही-हाँ, दूध-वाले को भी दिया जायगा। कह दिया, बस दिया जायगा ।... ___ वह लौट कर जाने लगी, और कहती गई, "कल के लिए घी बिल्कुल नहीं है ।"...
और मैंने उसकी पीठ पर चिल्ला कर कहा, “हाँ, सुन लिया, सुन लिया ।"
मैं पीठ को कुर्सी पर भली भाँति टिकाकर लेट रहा, और सामने दीवार में देखा......धी रुपये का बारह छटॉक आता है,
और डाक्टर की पाँच रुपया फीस है, और इकन्नी और तीन पैसे जो मिलकर सात होते हैं, सो वे ही सात पैसे जखर मेरी जेब में हैं।......
कि मैं एकदम जगा। सामने लेटे हुए कार्ड को पढ़ा। लिखा था
"श्रद्धास्पद श्रीमन्,