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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
कहा 'बस बेटा, बस ।' और हाथ बढ़ाकर साँप की देह पर फेरना चाहा । साँप आवेश के साथ उसके हाथ की ओर झपटा।
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सँपेरे ने होठों को बढ़ाकर पुचकारने की ध्वनि निकाली । मानो कि वह उसे चूमना चाहता है ।
सर्प अपने निष्फल आक्रोश को भीतर लेकर जल उठा । उसे अब लगा कि लोग उसकी भयङ्करता को व्यर्थ करने के बाद अब उस्रके तिरस्कार का आनन्द ले रहे हैं । जो उसका तेज था वह इन मनुजों के लिए मात्र सौन्दर्य है । मेरा रोष उनका विनोद है । मेरा अपमान उनकी खुशी है ।
सँपेरे ने उसके शरीर पर धीमे-धीमे हाथ फेरकर कहा, "श्रो बेटा, बस । बस, मेरे बेटे । "
साँप ने जोर से अपना दाँत सँपेरे के हाथ में गड़ा दिया । सँपेरा अपने हाथ में निकलता हुआ खून देखकर हँसा । उसने उसे पोंछ लिया और शान्त भाव से पुचकारते हुए कहा, "गुस्सा नहीं करते बेटे, शाबास शाबास ।”
इस पर साँप चुपचाप कुण्डली मारकर धरती पर बैठ गया । उसकी व्यर्थता उसे काटने लगी। अपने लाञ्छित दर्प को अपने ही भीतर चूसता हुआ वह परास्त, पराजित लोगों के बीच में पूछ में मुँह दुबकाये पड़ गया ।
एक आदमी ने कहा, “सँपेरे, तुमने इसके जहर के दाँत निकाल लिये मालूम होते हैं ।"
सँपेरे ने कहा, "नहीं बाबू, आप इसका भरोसा मत रखना । हम लोगों के पास तो बूटियाँ रहती हैं ।"
यह कहकर बूटी-सी कुछ निकालकर उसने काटे हुए स्थान पर घिस ली ।