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१८८ जैनेन्द्र की कहानियां तृतीय भाग
हीरासिंह ने धीर-भाव से कहा, "मैं तुम्हारा कुछ भी नहीं हूँ।" ___ गौ बोली, "तुम मेरे कुछ भी नहीं हो, यह तुम कहते हो ? तुम झूठ भी नहीं कहते होगे । तुम जो जानते हो, वह मैं नहीं जानती। लेकिन, मालिक की बात के साथ दूध देने की बात मुझ से तुम कैसी करते हो ? मालिक हैं, तो मैं उनके घर में उनके खुंटे से बँधी रहती तो हूँ, तो भी उनकी ड्योढ़ी से बाहर नहीं हूँ। पर दूध जो मेरे उतरता ही नहीं, उसका क्या करूँ ? मेरे भीतर का दूध मेरे पूरी तरह बस में नहीं है । कल रात वह आप-ही-आप इतना-सार! दूध यहाँ बिखर गया । मैं यह सोचकर नहीं श्राई थी। हाँ, मुझे लगता है कि बिखरेगा तो वह यों ही बिखर जायगा। तुम ड्योढ़ी में रहोगे तो शायद ड्योढ़ी में बिखर जायगा। ड्योढ़ी से पार चले जाओगे तो शायद भीतर-ही-भीतर सूख जायगा। मैं जानती हूँ, इससे तुम्हें दुःख पहुँचता है। मुझे भी दुख पहुँचता है। शायद यह ठीक बात नहीं हो। मेरा यहाँ तक आ जाना भी ठीक बात नहीं हो । लेकिन, जितना मेरा बस है, मैं कह चुकी हूँ। तुमने रुपये लिये हैं, और सेठ मेरे मालिक हैं, तो उनके घर में उनके खूटे से मैं रह लूँगी। रह तो मैं रही ही हूँ। पर उससे आगे मेरा वश कितना है, तुम्हीं सोच लो। मैं गौ हूँ, रुपये के लेन-देन से अधिकार का और प्रेम का लेन-देन जिस भाव से तुम्हारी दुनिया में होता है, उसे मैं नहीं जानती। फिर भी तुम्हारी दुनिया में तुम्हारे नियम मानती जाऊँगी। लेकिन, तुम मुझे अपने हृदय का इतना स्नेह देते हो, तब तुम मेरे कुछ भी नहीं हो और मैं अपने हृदय का दूध बिलकुल तुम्हारे प्रति नहीं बहा सकती यह बात मैं किसविध मान लू ? मुझ से नहीं मानी जाती, सच, नहीं मानी