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एक गो
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क्षणेक फिर शून्य में देखते रहकर सिर झुका कर वह हुक्का गुड़गुड़ाने लगा।
रात को जब वह सो रहा था, उसे मालूम हुआ कि दरवाजे पर कुछ रगड़ की आवाज आई । उठकर दरवाजा खोला कि देखता है, सुन्दरिया खड़ी है। इस गौ के भीतर इन दिनों बहुत बिथा घुटकर रह गई थी। वह तकलीफ बाहर आना ही चाहती थी। हीरासिंह ने देखा-मुंह ऊपर उठाकर उसकी सुन्दरिया उसे अभियुक्ता की आँखों से देख रही है। मानो अत्यन्त लज्जित बनी क्षमा-याचना कर रही हो, कहती हो, "मैं अपराधिनी हूँ। लेकिन मुझे क्षमा कर देना । मैं बड़ी दुखिया हूँ।"
हीरासिंह ने कहा, “बहिनी, यह तुमने क्या किया ?"
कैसा आश्चर्य ! देखता क्या है कि गौ मानव-वाणी में बोल रही है, "मैं क्या करूँ ?"
हीरासिंह ने कहा, "बहिन, तुम बेवफाई क्यों करती हो ? सेठ को अपना दूध क्यों नहीं देती हो ? बहिनी ! वह अब तुम्हारे मालिक हैं।" कहते-कहते हीरासिंह की वाणी काँप गई, मानो कहीं भीतर इस मालिक होने की बात के सच होने में उसको खुद शंका हो।
सुन्दरी ने पूछा, “मालिक ! मालिक क्या होता है ?" हीरासिंह ने कहा, "तुम्हारी कीमत के रुपये सेठ ने मुझे दिये थे। ऐसे वह तुम्हारे मालिक हुए।"
गौ ने कहा, "ऐसे तुम्हारे यहाँ मालिक हुआ करते हैं ! मैं इस बात को जानती नहीं हूँ। लेकिन तुम मुझे प्रेम करते हो, सो तुम मेरे क्या हो ?"