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एक गौ
१८१ हीरासिंह ने जवाब में कुछ नहीं कहा, और वह उसी रोज चला भी गया।
ज्यों-त्यों जवाहरसिंह को समझा-बुझाकर गाय वह ले आया। देखकर सेठ बड़े खुश हुए। सचमुच वैसी सुन्दर स्वस्थ गौ उन्होंने अब तक न देखी थी। हीरासिंह ने खुद उसे सानी-पानी किया, सहलाया और अपने ही हाथों उसे दुहा । दूध पन्द्रह सेर से कुछ ऊपर ही बैठा । सेठजी ने खुशी से दो सौ के ऊपर सात रुपये और हीरासिंह को दिये और अपने घोसी को बुलाकर गौ उसके सुपुर्दे की।
रुपये तो लिये, लेकिन हीरासिंह का जी भरा आ रहा था। जब सेठजी का घोसी गाय को ले जाने लगा, तब गाय उसके साथ चलना ही नहीं चाहती थी । घोसी ने झल्लाकर उसे मारने को रस्सी भी उठाई, लेकिन सेठजीने मना कर दिया। वह गौ इतनी भोली मालूम होती थी कि सचमुच घोसी का हाथ भी उसे मारने को हिम्मत से ही उठ सका था। अब जब वह हाथ इस भाँति उठ करके भी रुका रह गया तब घोसी को भी खुशी हुई; क्योंकि गौ की आँखों के कोये में गाढ़े आँसू भर रहे थे। वे आँसू धीमे-धीमे बहने भी लगे।
हीरासिंह ने कहा, “सेठजी, इस गौ की नौकरी पर मुझे कर दीजिए, चाहे तनख्वाह में दो रुपये कम कर दीजिएगा।"
सेठजी ने कहा, "हीरासिंह, तुम्हारे जैसा ईमानदार चौकीदार हमें दूसरा कौन मिलेगा ? तनख्वाह तो हम तुम्हारी एक रुपया और भी बढ़ा सकते हैं, पर तुमको ड्योढ़ी पर ही रहना होगा।"
उस समय हीरासिंह को बहुत दुःख हुश्रा । वह दुःख इस बात