________________
१८०
जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
ही आऊँगा । उसका नाम हमने सुन्दरिया रखा है।"
"हाँ, लेते आना । पर पन्द्रह सेर की बात है ना ? इतमीनान हो जाय, तब सौदा पक्का रहेगा । कुछ रुपये चाहिए तो ले जाओ ।"
हीरासिंह बहुत ही लज्जित हुआ । उसकी गौ के बारे में बे-ऐबारी उसे अच्छी नहीं लगती थी। उसने कहा, "जी, रुपये कहाँ जाते हैं, फिर मिल जायँगे। पर यह कहे देता हूँ कि गाय वह एक ही है। मुकाबले की दूसरी मिल जाय, तो मुझे जो चाहे कहना । "
सेठ साहब ने स्नेह - भाव से सौ रुपये मँगाकर उसी वक्त हीरासिंह को थमा दिये और कहा, "देखो हीरासिंह, आज ही चले जाओ, और गाय कब तक आ जायगी ? परसों तक ?”
हीरासिंह ने कहा, "यहाँ से पचास कोस गाँव है । तीन रोज तो आने-जाने में लग जायँगे ।"
सेठ जी ने कहा, " पचास कोस ? तीस कोस की मन्जिल एक दिन में की जाती है। तुम मुझको क्या समझते हो ?"
तीस कोस की मञ्जिल सेठ पैदल एक दिन छोड़ तीन दिन में भी कर लें तो हीरासिंह जाने । लेकिन वह कुछ बोला नहीं ।
सेठ ने कहा, "अच्छा, तो चौथे दिन गाय यहाँ श्रा जाय ।" हीरासिंह ने कहा, "जी, कम-से-कम पाँच पूरे रोज तो लगेंगे
ही ।"
सेठजी ने कहा, “पाँच ?"
हीरासिंह ने विनीत भाव से कहा, "दूर जगह है सेठजी !”
सेठजी ने कहा, "अच्छी बात है । पर देर मत लगाना, यहाँ काम का हर्ज होगा, जानते हो ? खैर, इन दिनों तुम्हारी तनख्वाह काटने को कह देंगे ।"