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कामना पूर्ति
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भर लेना चाहिये । पर पण्डित जी को जाने क्या हो गया है । अँगरखे की जगह सिल्क के कुरते ने ले ली है आर... वह सोचती है कि क्यों सीधे मुँह नहीं बोलते ? पहले दबते थे, अब बातबात में डाँट देते हैं ! सोने भी वक्त पर नहीं आते। न घर का ध्यान है, न बच्चों का । लड़के अवारा हुए जाते हैं। धन क्या मिला, फजीहत हो गई । जाने महात्मा कहाँ गये ? जो मिलें, इनका इलाज पूछूं ।
तो
रूपमती पति को पा गई। पर चार साल हो आने पर भी भगवान् की जाने क्या देन है कि उसकी गांद सूनी है। उसके पति कान्तिचरण इस ओर से निश्चिन्त ही नहीं, बल्कि सन्तति को अनावश्यक मानते हैं। बालक बिना घर क्या ? पर ये हैं कि इन्हें मेरे सिवा कुछ सूझता ही नहीं । कहते हैं, बालक होने पर स्त्री पति से परे हो जाती है । मैं अपने जी की इन्हें क्या बताऊँ ? जाने महात्मा कहाँ गये ? मिलते, तो उनकी शरण जाती ।
कान्चनमाला के पति ने सौन्दर्य को समझा । विमुखता उसकी हट गयी । यह सौन्दर्य ग़रीबी में कुम्हला न जाय, यह चिन्ता उसे सताने लगी। वह दिन-रात जी-तोड़ परिश्रम करता । प्रयत्न में रहता कि मेरी आर्थिक संकट की झुलस कान्चनमाला तक न पहुँचे । वह रोज सौन्दर्य-प्रसाधन की अनेक सामग्रियाँ खरीदता । वह चाहता कि कान्चनमाला कान्चनमयी होकर रहे। चाहे मेरा सर्वस्व लुट जाय । और वास्तव में उसका सर्वस्व लुट रहा था । यह सब कान्चनमाला की निगाह की ओट में किया जा रहा था, पर कोन्चनमाला जानती थी । वह देखती कि पति सूखते जा रहे हैं, गृहस्थी अर्थ के बोझ से दब रही है । वह घबरा जाती और सोचती कि जाने महात्मा कहाँ चले गये ? मिलते तो गर्व छोड़ कर उनसे कुछ माँगती ।