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कामना-पूर्ति
१६३ गोरे ! विधाता भी अन्धा है। धन ही दिया, तो बच्चे के लिए क्यों तरसा रखा है ? उधर पण्डितानी सेठों के हाल को तरसती थी। खिलाने को कोई पास नहीं है और अपने दो जने कैसे ठाठ से रहते हैं । न क्लेश, न चिन्ता, न कलह । मुझ पर इतने सारे खाने को आ पड़े हैं, सो क्या करूँ ? एक वह हैं कि धन की कूत नहीं और पीछे झमेला भी कोई नहीं। जो कहीं धन होता और यह सब जञ्जाल न होता, तो कैसा आराम रहता ।
वहीं नगर-सेठ की कन्या थी रूपमती। नाम को सत्य करने की लाज भगवान् को हो आये, जैसे इसी हेतु से माता-पिता ने उसका यह नाम रखा था। पति उसे अपने घर में नहीं रखता था । रूपमती ने सुना कि नगर में जो महात्मा श्रआये हैं, उनकी वाणी अमोघ होती है। परिवार वालों ने भी महात्मा का बड़ा माहात्म्य सुना । सबने तय किया कि हर प्रकार की भेंट से महात्मा को सन्तुष्ट करेंगे और निवेदन करेंगे कि हमारा कष्ट हरें, जिससे रूपमती को लावण्य प्राप्त हो।
कांचनमाला अति सुन्दर थी। देह की द्युति तप्त स्वर्ण की-सी थी। फिर भी पति उससे विमुख थे। उसने भी सुखी के सङ्ग महात्मा के पास जाने का निश्चय किया। . __सब लोग महात्मा के पास गये। महात्मा कहाँ से चलकर पधारे है, कोई नहीं जानता था । न उनकी आयु का पता था, न इतिहास का। वाणी उनकी गम्भीर और मुद्रा शान्त थी। सदा हँसते रहते थे। __ हर सन्ध्या को वह सब के बीच प्रवचन करते थे । विशेष वात के लिए उनसे अलग मिलना होता था। उस समय उनके पास एक