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१६२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] पर कलियुग में श्रद्धा का ह्रास है और यजमानों में धर्म-वृत्ति की हीनता है। इससे कठिनाई थी।
पण्डितानी ने कहा, "कुछ प्राप्ति हुई ?"
यज्ञदत्त पण्डित बोले, "क्या बतावें भई, अब म्लेच्छों का काल है । पर सुनो जी, नगर में एक बड़े योगिराज आये हैं। उन्हें सिद्धि प्राप्त है । उनसे दुःख निवेदन करना चाहिये।"
पण्डितानी गुस्से में बोली, "देखे तुम्हारे जोगराज ! इन्हीं बातों में ये तीस वर्ष गुजार दिये । कहीं तो कोई सिद्धि-विद्धि काम श्राई नहीं । तुम्हारे पोथी-पत्रों का क्या करूँ ? कब से कह रही हूँ, परचून की एक दूकान ले बैठो, तो कुछ सहारा तो हो। बड़े-बड़े अपने भगतों की बात कहते हो, कोई इतना नहीं करा सकता ?"
पण्डित बोले, "लो भई, फिर वही तुमने अपना राग लिया। हम कहते हैं, महात्मा ऋद्धि-सिद्धि वाले हैं, चलकर देखने में अपना क्या हरज है ? भगवान् की लीला है। कृपा हो, तो क्या कुछ न हो जाय ! विपता में ही श्रद्धा की पहिचान है। भगवान् की यह तो परीक्षा है। अरे भाई, तुम भाग्य से लड़ने को कहती हो। यह तो भगवान् का द्रोह है। भला, ऐसा कहीं होता है ? ब्राह्मण हैं, सो ब्राह्मण के योग्य कर्म हमारा है। दुकान-वुकान की बात परधर्म है । सुना नहीं, गीताजी में भगवान ने कहा है :
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः । पण्डितानीजी ने गीताजी की संस्कृत का मान नहीं किया। उन्होंने पति को खरी-खोटी सुनाई। अन्त में जैसे-तैसे तैयार हुई कि अच्छा कल उस जोगी-महात्मा के पास चलेंगे।
सेठानी पण्डितानी के भाग्य को सराहती थी कि घर उनका कैसा बाल-गोपालों से भरा-पूरा है। और बच्चे भी कैसे कि सब