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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] हमारी बुद्धि ने बनाया है। उसके सामने हाथ बेकार हैं। कारखाने में आदमी का नाम सिर्फ हाथ है।"
करमसिंह ने कहा, "मैं सिर्फ हाथ सही । अपने इन्हीं हाथों में मेरा भाग्य है पर मेरा अजित कहाँ है।"
"अजित कौन ?" "मेरा पुत्र, मैं उस जवान को यहाँ छोड़ गया था।"
विद्वान् मुस्कराकर बोले, "तो वह अजित नहीं रहा, विजित हो चुका।"
करमसिंह ने कहा, "अजित नहीं रहा ? किस से नहीं रहा ? तुम्हारे घोड़े, हार्स-पावर से ?"
विद्वान् ने कहा, "मनुष्य अपने से आगे जा रहा है । अपने से पार जा रहा है। वह एक घोड़े पर नहीं सैकड़ों घोड़ों पर है। रिवोल्यूशन है, पर तुम नहीं समझोगे।"
"हाँ।" करमसिंह ने कहा, "मैं नहीं समझंगा।" "घोड़े को मैं मालिक नहीं समझूगा । नमस्कार ।" विद्वान् ने रोककर कहा, "अरे जा कहाँ रहे हो ? जी आदमी? तुम पर तो लेख लिखना है।"
करमसिंह ने कहा, "मुझे आप के हार्स-पावर को जाकर देखना है। अजित उसी में गया है न?"