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१३२ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग कता यानी आत्म-दमन के लक्षण उनमें प्रकट हो चले हों। यह जो हो; पचपन वर्ष के लगभग आयु होने पर जिनराजदास में यह परिवर्तन आ चले हम इतना ही जानते हैं।
:२: साप्ताहिक अनशन और मौन से, तख्त पर सोने, मोटा खाने और मोटा पहनने से अन्दर की बेचैनी उनकी जा न सकी । बल्कि भीतर जो शंका जगी थी वह और भी गहरी पहुँच कर उनके अन्तरंग को कुरेदने लगी।
ऐसा कितना हो काल बीता। वर्ष से ऊपर हो गया। इस बीच जो भीतर स्थिर था, उखड़-पुखड़ कर नष्ट होने लगा।
अन्दर व्यथा कुछ इतनी गहरी होती गई कि पूर्वोपार्जित सब धारणाएँ उसकी पीड़ा में आकर खोकर लुप्त हो चलीं । आग में जो पड़ता है, भस्म हो जाता है । कुछ उसी तरह की आग उनके भीतर लपटें देकर इस सारे काल दहकती रही। सोचा था, जगत्-व्यापारों से अपने को शून्य करके शान्ति पावेंगे, पर वैसा कुछ न हुआ। चिनगारी ज्वाला बन दहकी। अब बीच में रुकना कहाँ था । पूरी तरह जल चुके बिना शान्ति न थी।
ऐसी अवस्था में एक दिन पत्नी को और लड़के-लड़की को बुला कर जिनराजदास ने कहा, "समय आ गया है। अब मैं जाऊँगा ।"
तख्त पर चटाई डाले स्वस्थ और स्थिर अपने पिता को इस समय वे तीनों नहीं समझ सके । तब भी इनकी बात को कान तक लेकर हठात् बोले, “कहाँ जाएँगे ?"
"कहाँ जाऊँ, यह अच्छी तरह मालूम करके चलू तो जाने का