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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
पारावार में बिन्दु जितने भी तो नहीं हैं, जिसका किनारा मेरी मृत्यु से आरम्भ हो जायगा । मृत्यु के उस पार क्या है, मालूम नहीं । पर केवल 'न' कार वह अवश्य नहीं है । फिर जो भी वह है, परिमेय है, असीम है ।
संक्षेप में जिनराजदास का मन विह्वल है । एक गहरी विरक्ति वहाँ बसती जा रही है। यहाँ के आरम्भ समारम्भ व उनके मन को घेर नहीं पाते हैं । छूट छूट कर यह मन यहाँ के घेरे से बाहर की ओर भागता है ।
इसलिए उन्होंने अपनी उपाधि को लौटा दिया, वस्त्र सादा कर लिया, पलंग छोड़, सोने के लिए तख्त अपनाया और हर सप्ताह एक रोज मौन और अनशन से रहना शुरू किया । इस परिवर्तन के सम्बन्ध में उन्होंने किसी से सलाह नहीं ली। उनके परिचित जनों ने स्वभावतः माना कि यह भी एक बुद्धि-विलास है ।
जिनराजदास के जीवन का आस-पास बड़ा प्रभाव था । वह सफल पुरुष थे। उनकी कर्मण्यता उदाहरणीय गिनी जाती थी । उनका निःशंक आत्म-विश्वास लोगों को आतंक में डाल देता था । निःसन्देह अदम्य उत्साह से भरे, लोगों को ठेलते और विघ्नबाधाओं को कुचलते हुए अपने संकल्प में स्थिर जिमराजदास अब तक सब कुछ पाते और बनाते चले आए हैं। राह में कहीं कच्चे नहीं पड़े । और जो चाहा उसे अप्राप्त नहीं छोड़ा ।
पर सुई जैसा बारीक काँटा इस उम्र में उन्हें श्रा चुभा है। उस छिद्र की तनिक-सी अभिसन्धि में से हवा तेजी से निकली जा रही है-बैलून अब नीचे आए बिना न रहेगा। अब वह निष्क्रिय सशङ्क और सब के बीच होकर एकाकी पड़े जा रहे हैं। उन्हें नहीं आवश्यकता हुई थी किसी अपरतत्व की स्वीकृति की, यह दुनिया