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उपलब्धि
श्री जिनराजदास की अवस्था लगभग पचपन वर्ष की हो आई, लड़का ओहदा पाकर उनसे निरपेक्ष हो गया और कन्या माता बनकर अपने घर की हो गई। तब उन्हें जैसे एकाएक ज्ञात हुआ कि जिन बिन्दुओं को दृष्टि में लक्षरूप रखकर जिन्दगी में वह अब तक बढ़ते चले आए हैं, वे स्वयं भ्रम में थे और शून्य में खो गए हैं। छुटपन में विद्या में और परीक्षा में, उसके बाद क्रमशः स्त्री में, धन में, प्रतिष्ठा में और प्रभुता में उन्हें लगन होती चली गई थी। पर अब जैसे एकाएक यह-सब सूना, सब व्यर्थ होने लगा है। उपार्जित ज्ञान अज्ञान लगता है ! स्त्री बेड़ी, धन परिग्रह, प्रतिष्ठा माया और प्रभुत्व अहंकार जान पड़ता है। अब तक संसार घर लगता था, अब एकाएक वही परदेश-सा दूर और पराया मालूम होता है। जैसे यहाँ के नाते-रिश्ते झूठे हों और असल घर और कहीं हो ।
जिन-जिन वस्तुओं को कभी बड़ी लगन से चाहा और बड़े प्रयत्न से प्राप्त किया था अब उन्हीं से उकताहट-सी होती है। लगता है कि ये पचास-पचपन वर्ष-जितने जीवन के उस अनन्त
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