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१२४ जनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] हे प्रभु, पापी को अपनी दया में ही रखना। क्योंकि वह नहीं जानता है।"
वैरागी को चुप देखकर जोर से मङ्गलदास ने कहा, "क्यों वैरागी, नहीं सुनते ?"
वैरागी अपनी प्रार्थना में लीन था। वह कह रहा था, "हे मेरे प्रभु, इस पर भी अपनी अनुकम्पा रखना; क्योंकि वह अपनी तृष्णा के कारण अबोध बना हुआ है।"
वैरागी को बराबर चुप देखकर मङ्गलदास को क्रोध चढ़ आया । उठकर उसने एक जोर से उसे थप्पड़ दिया और फिर लात-घूसों से भी खूब मारा। ___ अन्त में बोला, "अब तो समझे, ओ वैरागी !"
पर वैरागी तो अपने मन में कह रहा था, “प्रभु, सब में तुम्ही हो । तुम्ही हो । तुम्ही हो !" ___ मार के कारण वैरागी को चोट तो थाई, पर बहुत नहीं आई। इसमें दोष वैरागी का नहीं था। असल में मङ्गलदास के मन में समझदारी के कारण कुछ त्रुटि रह गई थी।, मङ्गलदास बुद्धिमान् था। उसने सोचा-सोने का अण्डा देने वाली. मुर्गी को मारकर कहानी-वाले आदमी ने कुछ नहीं पाया था। इसलिए वैरागी को मारकर बे-काम या खत्म कर दूंगा तो इससे तो मेरा ही काम बिगड़ेगा। यह मूर्खता मुझे नहीं करनी चाहिए। ____ अगले सबेरे गाँव-वाले वहाँ प्राये । आये तो उनका और ही रङ्ग-ढङ्ग दिखाई दिया। आते ही जो मुंह पर पाया उन्होंने बकना शुरू किया और झोंपड़ी की सब चीजें बिखेर डाली। उस समय वहाँ बाबा की गद्दी के नीचे से कितनी ही अशर्कियाँ निकलीं।