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________________ लाल सरोवर १२१ भी साधु से सवाल-जवाब करने लगे । सुनकर वैरागी वहाँ आया । उस वक्त मंगलदास ने बात का ढंग बदल कर कहा, "वैरागी, ये दोनों लड़के तुम्हारी रोज चोरी किया करते थे और मैं इनको रोज समझाता था कि वैरागी की चीज़ वैरागी को भी देनी चाहिए। लेकिन ये बड़े धूर्त्त हैं । तुम को अब तक इन्होंने नहीं वतलाया कि तुम्हारी वजह से कितना सोना इन्होंने पा लिया है । लाओ रे लड़को, जितनी अशर्फियाँ तुम्हारे पास हैं सब यहाँ रखो । नहीं तो चोर कहलाओगे !" सुमेर तो इस पर लाजवाब-सा रह गया । लेकिन चन्दन ने कहा, "गुरुजी, अपना भला चाहो तो बदजुबानी मत करो। मैं सुमेर नहीं हूँ और तुम्हारा गुरुपन भी नहीं समझता हूँ । इन बेचारे सीधे वैरागी की बदौलत ही तुम चैन कर रहे हो। मैं अब सब समझ गया हूँ। अपनी खैर चाले तो चुप रहो । नहीं तो अभी गाँव वालों को बता दूँगा और तुम्हारी वह दुर्गति होगी कि याद रखोगे !" 1 इस बात के बीच में वैरागी खड़ा हुआ ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि हे भगवन्, मुझ पर दया कर, मुझे क्षमा कर ! मंगलदास उस वक्त तो अपनी फजीहत को पी गया; लेकिन रात को जब अकेला रहा तब उसने वैरागी से कहा कि सब कुकर्म की जड़ तुम हो ! बोलो, अब तुम्हारा क्या किया जाय ? वैरागी सचमुच सब दोष अपना ही मान रहा था उसने कहा कि आप मुझ पर अब तक दया भाव ही रखते रहे हैं। अब भी दया करें और मेरी सज्जा का निर्णय आप करें। सचमुच दोष मैं अपना मानता हूँ कि अब तक भी मेरे कारण सिक्का इस जगत् में बनता और बढ़ता रहा । मंगलदास ने कहा, "श्रथ तक का क्या मतलब ?".
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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