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________________ १०४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] दुखने लगा है और अशर्फियाँ भी नहीं मिलती हैं। इससे क्या फायदा है ? कोदिन के दिन निकट आ गये थे और वैरागी की सेवा भी उसके बहुत काम नहीं आ सकी। वह असल में मरना ही चाहती थी। वह ईश्वर की या दुनिया के लोगों की किसी की क्षमा नहीं चाहती थी। उसे अपने पापों का ख्याल था और जानती थी कि यह उसकी सजा है । जब से वैरागी उसके पास आने लगा था तब से उसकी आदत बदलने लगी थी। पहले वह सबको फूहड़ गालियाँ दिया करती थी और दिन-भर वकती रहती थी। वैरागी ने जब हर तरह की गालियाँ खाकर भी उसे कोई चिढ़ाने की बात नहीं कही; बल्कि विना कुछ बोले वह उसकी कुटिया की सफाई कर देता था, उसका थूक-मैल उठा देता था और उसके गन्दे कपड़े धो देता था तो यह देखकर कोदिन को पहले तो कुछ ठीक तरह समझ में नहीं आया। थोड़े दिन बाद कोडिन मानने लगी थी कि मेरी मौत जल्दी क्यों नहीं हो जाती है। मेरी वजह से इन भलेमानस को दुःख उठाना पड़ रहा है । वह हर घड़ी ईश्वर से अपनी मौत की याचना करती थी, क्योंकि इन वैरागी की सेवा उससे नहीं सही जाती थी और वह मन-ही मन अपने को बहुत धिक्कारती थी। __ इधर वह कोदिन मरना चाह रही थी उधर मंगलदास ने सोचा कि, "जब तक यह कोदिन यहाँ है वैरागी इस नगर से टलने का नाम नहीं लेता दीखता है । इसलिए इसको खतम करना चाहिए। ___ यह सोचकर मंगलदास एक रोज रात को चुपचाप आया और सोती हुई कोदिन का गला दबाकर उसे दुःख-सन्ताप से छुड़ा दिया। अगले रोज मंगलदास के कन्धे पर बैठकर वैरागी बाबा
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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