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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] और चारों तरफ गूदड़ इकट्ठे हो रहे हैं। बास फैली है । कहीं थूक है, कहीं मैल है और वह कोदिन अकेले रहते-रहते बड़ी चिड़चिड़ी हो गई है।
कल्पना में देर तक वह उस स्त्री को देखता रहा । यहाँ तक कि मन में बड़ा कष्ट हो पाया।
रात को वह सोया । तब भी वह स्त्री उसके स्वप्न में दूर नहीं हुई; पर उसको ऐसा मालूम हुआ कि कोई उससे कह रहा है-'तू वैरागी है, क्योंकि तुझे खाने-पीने को आराम से मिल जाता है। तू भगत है, क्योंकि लोग तेरी शरधा मानते हैं। पर तू मेरा भगत नहीं है, तन का भगत है।' ___उसे मालूम हुआ जैसे उसे कोई उलहना दे रहा है और कह रहा है कि तू अच्छे फल के लिए ही अच्छे काम करता है ना ! तू स्वार्थी है और कुछ नहीं है। ___ सवेरे जब वह उठा तो उसे कल की बात याद थी। इसलिए शिवालय से उतर कर नगर की ओर मुंह करके वह चल दिया । उसे कुछ ठीक पता नहीं था, पर जैसे पैर अपने-आप उठे जाते थे। ___ उसी नगर में एक आदमी रहता था । उसका नाम था मंगलदास । मंगलदास साधु-सन्तों में भक्ति-भाव रखता था । समझता था कि तपस्या की बड़ी महिमा है और सन्त लोगों पर ईश्वर की दया रहती है । उनके सत्संग से क्या जाने मुझे भी कुछ लक्ष्मी पाने का सौभाग्य मिल जाय । मंगलदास आदमी समझदार था, विद्यावान और हुनरमंद था और इज्जत-आबरू वाला था । शिवालय में आकर एकान्त में बसने बाले उस वैरागी की सेवा में सदा भेंट-उपहार लाया करता था। सोचता था-अब फल मिलेगा, अब फल मिलेगा। वह मंगलदास आज सवेरे ही जल्दी उठ गया